Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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બુદ્ધ
नन्वेवं सर्वस्यानादिपर्यंतवासादिपर्यंतताभ्यां व्याप्तत्वात् विरुद्धता स्यादिति चेन, आत्मनोऽनैकांतानादिपर्यंततायाः साभ्यत्ववचनात् यथैव हि घटादेरनाद्यनंवेतररूपत्वे सति सच्यं तथात्मन्यपीष्टमिति के विरुद्धत्वम् ।
तत्त्वार्यचिन्तामणिः
यहां चार्वाक शंका करते हैं कि इस तरह सम्पूर्ण पदार्थों के सहेतुकी अनादि अनंत और सादि सांतपनेसे व्याप्ति सिद्ध हुयी तो अकेले अनादि अनंत सिद्ध करनेमें दिया गया आप जैनोंका सत्त्व हेतु विरुद्धहेत्वाभास हो जायगा । आचार्य कहते हैं, कि यह तो चाकको नहीं कहना चाहिए क्योंकि आत्माको एकांतरूपसे अनादिअनंतता साध्य नहीं कही सपना भी साथ में समझना चाहिए, कितु वह आपको पहिलेसे इष्ट है ही, इस कारण हमने कण्ठोत्तरूप से साध्य कोटिंमें नहीं डाला है । जिस हि प्रकार कि घट, पट आदिकों को अनादि अनंत और सादिसांत होनेपर ही सत्त्व रहता है वैसे ही आत्मामें भी अनादि अनंत और सादिसांत होनेपर सत्त्व इष्ट किया है। इस तरह विरुद्ध दोष कहां रहा ! अर्थात् हमारा हेतु विरुद्ध नहीं है
कथं तर्हि सत्त्वमनेकान्तैांवेन व्याप्तं येनात्मनोऽनाद्यनन्तेतररूपतया साध्यत्वमिष्यत इति चेत् सर्वथैकविरूपेण तस्य व्यास्यासिद्धेहिरंत श्वाने कांततयोपलम्भात्, अनेकांतं वस्तु सच्चस्य व्यापकमिति निवेदयिष्यते ।
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गयी है । सादि
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प्रतिवादी करता है कि तब तो बताओ कि जैनोंके मतमे सत्त्व हेतु अनेकांत रूप इकले एकांत के साथ व्याप्ति कैसे रखता है ? जिससे कि आत्माको अनादि अनंत और सादि सांतपनेसे साध्यपना आप जैन इष्ट कर सके। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि चार्वाक ऐसा कहेंगे तो इम उत्तर देते हैं कि अनादि अनंत और सादि सांत से सर्वथा एक अकेले धर्मके साथ उस सत्त्वहेतुकी व्याप्ति सिद्ध नहीं है । सम्पूर्ण पुद्गल और आत्मसंबंधी बहिरंग अंतरंग पदार्थ अनेक धर्मोसे विशिष्ट होर ही देखे जाते हैं । अतः अनेक धर्मोसे सहित होरहा द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु ही सत्रहेतुका व्यापक है । इस बासको और भी अधिकरूप से अभिम ग्रंथ आपसे निवेदन कर देंगे। अनेकांत भी अनेकांत रूप है अर्थात् अर्पितनयसे एकांत भी हमको हृष्ट है । " अनेकांतोऽप्यनेकांसः प्रमाणनयसाधनः । अनेकांतः प्रमाणात्रे तदेकांतोऽर्पितान्यात् " ऐसा " बृहत्स्त्वयम्भू स्तोत्र " में लिखा है ।
बृहस्पतिमतास्थित्या व्यभिचारी घटादिभिः ।
न युक्तोऽतस्तदुच्छित्तिप्रसिद्धेः परमार्थतः ॥ १५० ॥