Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामाः
कि विशेषणका ग्रहण कर लिया जावे, विना विशेषणके ग्रहण किये विशेष्य में बुद्धि नहीं हो पाती है । उनके यहां ऐसा कहा है कि घौला कपडा है यह बुद्धि धौलेरूपको पहिले जानकर होती है, भूरे से मूरेमें ज्ञान होता है। उन नैयायिकोंके मत में " मैं ज्ञानवान् हूं” ऐसी प्रतीति भी ज्ञान नामक विशेषण और आत्मास्वरूप विशेष्य के न ग्रहण करनेपर कभी नहीं उत्पन्न हो सकती है। यदि विशेषण और विशेष्य के ग्रहण बिना भी विशिष्टबुद्धिकी उत्पत्ति मानोगे तो नैयायिकों को अपने मतसे विरोध हो जावेगा ||
३१.
गृहीते तस्मिन्नुत्पद्यते इति चेत्, कुतस्तद्गृहीतिः १ न तावत्स्वतः स्वसंवेदनानभ्युपगमात्, स्वसंविदिते धात्मनि ज्ञाने च स्वतः सा प्रयुज्यते नान्यथा संतानोतरवत् । परतशेतदपि ज्ञानांवरं विशेष्यं नागृहीते ज्ञानत्वविशेषणे ग्रहीतुं शक्यमिति ज्ञानान्तरात्तग्रहणेन भाव्यमित्यनवस्थानात्कुतः प्रकृतप्रत्ययः १ ।।
यदि नैयायिक यों कहेंगे कि उस ज्ञानस्वरूप विशेषणके ग्रहण करनेपर विशिष्टबुद्धि पैदा होती है तब तो तुम बतलाओ कि उस ज्ञानका ग्रहण किससे होगा : ज्ञानका ग्रहण अपने आप स्वयं तो हो नहीं सकता है क्योंकि आपने आत्मा और ज्ञानका अपने आप अपनेको जाननेवाला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष स्वीकार नहीं किया है। यदि ज्ञान और आस्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष मानते होते सब उन दोनों का वह स्वतः ग्रहण होना कह सकते थे, अन्यथा नहीं कह सकते हो। दूसरे प्रकारोंसे मेदवादियों के मलमे संतानांतरोंके समान ज्ञान और आत्माका ग्रहण नहीं हो पाता है। मात्रार्थ - जैसे देवदत्त के ज्ञानका यज्ञदत्त प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है या देवदत्तकी आस्माका यज्ञदत्त प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है । उसीके सहश देवदत्त भी अपने ज्ञान और आत्माको नहीं जान पावेगा ।
यदि दूसरे ज्ञानसे ज्ञान और आत्माका ज्ञान होना मानोगे तो वह दूसरा ज्ञान भी विशेष्य है उसमें ज्ञानस्व विशेषण है। दूसरा ज्ञान भी अपने ज्ञानत्व विशेषणको जबतक नहीं जानेगा; तबतक प्रकृतज्ञानको ग्रहण करने में समर्थ नहीं है । यहां भी दूसरा ज्ञान और उसके ज्ञानश्वको जानने के लिये तीसरे, चौथे, पांचमे ज्ञान होते रहने चाहिये । इस प्रकार अनवस्था होती है। भला ऐसी दशा में प्रकरण प्राप्त होरहे विशेषण रूप पहिले ज्ञानका ग्रहण कैसे होवेगा ? बसाओ तो सही । भिति के बिना कहां तक कल्पित चित्रोंको लिखोगे ।
नन्वहंप्रत्ययोत्पत्तिरात्मज्ञप्तिर्निगद्यते ।
ज्ञानमेतदिति ज्ञानोत्पत्तिस्तज्ज्ञप्तिरेव च ॥ २०२ ॥ ज्ञानवानहमित्येष प्रत्ययस्तावतोदिता । तज्ज्ञानावेदनेप्येवं नानवस्थेति केचन ॥ २०३ ॥