Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
जैसे कितनी भी पैनी तलवार क्यों न हो, अपनेको स्वयं नहीं काटती है । कैसा भी सीखा हुआ नटका छोकरा हो, वह आप ही अपने कंधे पर नहीं चढ जाता है। भक्षण रूप किया स्वयं अपना भक्षण नहीं कर सकती है। इसी प्रकार ज्ञान स्वयं अपनेको नहीं जान सकता है। अतः ज्ञानका जाना गया पना हम दूसरे ज्ञानसे इष्ट करते हैं । वादी आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकों के कहने पर तो अनवस्था होती है। क्योंकि जो ज्ञान पहिले ज्ञानका ज्ञापक है वह तीसरे ज्ञानसे जाना गया होना चाहिये और वह तीसरा चौथे ज्ञानसे परिच्छेद्य होना चाहिये तब कहीं पहिला ज्ञान जाना जा सकता है । इस अनवस्थाका परिहार करना आपके लिये अत्यंत कठिन पड गया है । आपने अपने स्वयं क्रियाका विरोध दिया था सो ठीक नहीं है । देखो। अभि स्वयं अपनेको जला देती है । मैथीका शक अपनी गर्मी से अपने आप झुलस जाता है। दीपक, सूर्य स्वयं अपना प्रकाश करते हैं? अच्छा अभ्यासपद है, तभी तो अपने नवीन उत्पन्न किये अनुभवको पुस्तकमै टिप्पण कर लेता है । अनेक वैद्य स्वयं अपने आप चिकित्सा कर लेते हैं । निश्चय नयसे सम्पूर्ण पदार्थ अपने में स्वयं आप व्यवस्थित हो रहे हैं। वास्तव में क्रियावान् और क्रियामै ही क्रिया रहती हैं । अतः जानना रूप ज्ञानकिया भी ज्ञानमें आनंदके साथ रह सकती है । नट छोराकी पीठकी हड्डी मुडही नहीं, अतः वह अपने कंधे पर नहीं बैठ पाता है । गोह, गिलहरी, विच्छु, सांप अपने पिछले भागको कंधोपर घर सकते हैं। पेनी कैचीको खाकी जोरसे चलाया जाय तो स्वयं अपने को काट डालती है । दृष्टांतोंसे तत्त्व निर्णय नहीं होता है । जगतमें उदाहरण सभी प्रकारके मिल जाते हैं। सज्जनोंको सञ्जनोंके और दुर्जनों को दुर्जनोंके दृष्टान्त भरे पढे हैं।
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नन्वर्थज्ञानपरिच्छेदे तदनन्तरज्ञानेन व्यवहर्तुराकांक्षाश्रयादर्थज्ञानपरिच्छित्तये न ज्ञानांवरापेक्षास्ति, तदाकांक्षया वा वदिष्यत एव । यस्य यत्राकांक्षाक्षपस्तत्र तस्य ज्ञानांतरापेक्षानिवृत्तेस्तथा व्यवहारदर्शनात्ततो वानवस्थेति चेत्, तर्थर्थज्ञानेनार्थस्य परिच्छितों कस्यचिदाकांक्षाक्षया तज्ज्ञानापेक्षाऽपि माभूत् ।
अनवस्था दोष परिहारके लिये नैयायिक अनुनयसहित प्रयत्न करते हैं कि पहिले अर्थज्ञानको जानने में उपयोगी उसके अव्यवहित उत्तरवर्ती दूसरे ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। बस ! उस दूसरे ज्ञानसे ही ज्ञाता व्यवहारीकी अकांक्षा निवृत्त हो जाती है। अतः उस दूसरे ज्ञानको जानने के लिए तीसरे चौथे ज्ञानों की अपेक्षा नहीं होती है। ऐसा कौन ठलुआ बैठा है ! जो व्यर्थ ही अपने ज्ञानको जाननेकी इच्छाओंको बढाता रहे। हां! यदि कोई उन तीसरे चौथे ज्ञानोंके जानने की इच्छा करेगा तो हम उन चौथे, पांचमे ज्ञानोंका उत्पन्न होना इष्ट करते ही हैं। जिस व्यक्तिको जहां कहीं जाकर आकांक्षाकी निवृत्ति हो जावेगी उस व्यक्तिके वहां तकके ज्ञापक कई ज्ञान मान लेवेंगे और तैसा व्यवहार भी हो रहा देखा जाता है। जैन लोगों को भी ज्ञानोंके जानने की आकांक्षा होनेपर सौ और पांच सौ तक भी ज्ञान मानने पडेंगे। अन्य कोई उपाय नहीं है,
फलमुख गौरव