Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
११८
तत्त्वापिसामाणः
-
नैयायिक ऐसा कहेंगे तब तो पराशन और प्रतिभागना किसानको भकक है, हाच ज्ञान प्रकाश रहा है, ज्ञान प्रतिमास रहा है, दीप प्रकाश रहा है ये अकर्मक क्रियाएं तो ज्ञानकी स्वात्मामें विना विरोधके ठहर जावेगी। अभेदपक्षमै ठीक व्यवस्था बन जाती है । वस्तुव्यवस्था और नय पद्धसिपर लक्ष्य रखो।
ज्ञानमात्मानं जानातीवि सकर्मिका तत्र विरुद्धेति चेम, आत्मानं हन्तीत्यादेरपि विरोधानुषङ्गात् ।
ज्ञान अपनेको जान रहा है, ऐसी सकर्मक ज्ञाघातकी क्रिया तो ज्ञान विरुद्ध ही है, यह आप प्रतिवादी जन नहीं कहना। क्योंकि यों तो देवदत्त अपने आपको मारता है, इंद्रदत्त अपने आपको जीवित रखता है, द्रव्य अपनेको त्रिकालमै विद्यमान रखता है इत्यादि क्रियाओंका मी अपने साथ विरोध करने का प्रसङ्ग होगा, जो कि आपको भी इष्ट नहीं है ।
कर्टवरूपस्य कर्मस्पेनोपचारामात्र पारमार्थिक कर्मेति चेत्, समानमन्धत्र, ज्ञाने करि स्वरूपस्यैव धानक्रियायाः कर्मतयोपचारात् ।
पतिवादी कहता है कि देवदत्त अपनी हिंसा कर रहा है या अपनेको जीवित रखता है। यहां वास्तविक रूपसे देवदत्त स्वयं कर्म नहीं है किंतु कर्तारूप देवदत्तको उपचारसे कर्म होजावे करके कह दिया गया है। अब आचार्य कहते हैं कि यदि तुम नैयायिक ऐसा कहोगे तो दूसरी जगह हम भी ऐसा ही समानरूपसे कह सकते हैं अर्थात् जान अपनेको जानता है यहां मी कर्ताको ही गौणपनसे कर्म बना दिया गया है । ज्ञानरूप काम आपको ही जानने रूप क्रियाका कर्मपना न्यवद्धृत कर लिया गया है। वास्तवमें देखा जाय तो ज्ञान अपनेको मुख्य रूपसे जानता है, विषयका आनना तो उसका गौण कार्य है। दीपक और सूर्यका मुख्य कर्तव्य स्वप्रकाशन है पदार्थोंका प्रकाशन होजाना तो उनका विना प्रमनके छोटा कार्य है।
ताविकमेव झाने कर्मस्वं प्रमेयत्वात्तस्येति चेत्, तथदि सर्वथा कर्तुरभियं तदा विरोधः, सर्वथा मित्रं चेत्कथं तत्र ज्ञानस्य जानातीति क्रिया स्वात्मनि स्थाधेन विरुध्येत? कथमन्यथा कर्ट करोतीति क्रियाऽपि कटकारस्य स्वात्मनि न स्यायतो न विरुध्यते ।
योग कहते हैं कि ज्ञानमें तो कर्मपना वास्तविकरूपसे ही है क्योंकि वह प्रमितिरूपक्रिया का कर्म है । तमी तो आपके मतानुसार वह स्वयं अपना प्रमेय हो सकता है। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम पूंछते हैं कि वह कर्मपना यदि कतैसे सर्वथा अभिन्न है तब तो नैयायिकको अपने मतसे विरोध हुमा क्योंकि भेदवादी नैयायिकोंके मतमें एक ही पदार्थ में कापन मौर मेपन नहीं माना गया है।