Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तात्या चिन्तामणिः
ज्ञाने स्वसंवेदकताप्रतीतेः स्वात्मनि क्रियाविरोधन पायवस्पान सपरिशिश पत्, का पुनः स्वास्मनि क्रिया विरुद्धा परिस्पन्दरूपा धात्वर्थरूपा वा १ प्रथमपक्षे तस्या द्रव्यप्रतित्वेन जाने तदभावात्, धास्वर्थरूपा तु न विरुदेव भवति तिष्ठतीत्यादिक्रियायाः स्वात्मनि प्रतीतेः । कथमन्यया भवत्याकाशं, तिष्ठति मेरुरित्यादि व्यवहारः सिवयेत् ? ।
प्रतिवादी कहता है कि ज्ञानरूप स्वास्लामें जाननारूप क्रियाके विरोध करके ज्ञानमै स्वसंवेदकताकी प्रतीति जैनोंकी बाधित हो जाती है अर्थात् ज्ञानमें अपने आप जाननेकी क्रिया होनेका. विरोध है । इस कारण ज्ञान स्त्र को वेदक माननेकी प्रतीतिमें बाधा उपस्थित है। अतः उस प्रकार अपनेको और अर्यको जाननेवाला ज्ञान हम इष्ट नहीं करते हैं। ज्ञान केवल अर्थको ही जानता है ऐसा कहनेवाले नैयायिकोंसे तो पूछते हैं कि फिर भला कौनसी क्रिया अपने भाप अपनी आत्मामें रहनेका विरोध कर रही है । बताओ, क्या हलनचलनरूप किया अपने स्वरूपमें नहीं रहती है ! अथवा स्था, अस्, वृध, चकास्, आदि धातुओंके स्थित रहना, या विद्यमान रहना या पढना, प्रकाशित होना आदि अर्थरूप किया अपनी आत्मामें नहीं रहती हैं ! उत्तर कहिये ।
यदि पहिला पक्ष लोगे तो वह हलनचलनरूप क्रिया आपके और हमारे मतानुसार गुन्यों में रहती मानी गयी है । ज्ञानमें उसकी सत्ता ही असम्भव है । हा दूसरा पक्ष लेने पर धातुओंके अर्थरूप क्रियाएं तो विरुद्ध नहीं होती हैं। देखिये, गृह ठहरा हुआ है, देवदत्त बढ रहा है, दीपक प्रकाश रहा है आदि घास्वरूप क्रियाएं अपनी आस्मामें ही होती हुयीं जानी जाती है। यदि ऐसा न स्वीकार कर अन्य प्रकार मानोगे तो बताओ कि आकाश है, मेरु ठहर रहा है, वायु बह रही है, जिनदत्त जाग रहा है, इत्यादि व्यवहार किस प्रकार सिद्ध होते ! वस्तुतः क्रिया और क्रियानका भभेद है। क्रियावान्में ठहर रही क्रिया स्वयं क्रिया ही पायी जाती है । विरोध नहीं है |
सकर्मिका धात्वर्थरूपापि विरुद्धा खात्मनीति चेत्, तर्हि शान प्रकाशते चकास्तीति क्रिया न स्वात्मनि विरुद्धा?
प्रतिवादी कहता है कि अकर्मक धातुओं की क्रियाएं अपने अभिन्न काम म ही विरुद्ध न हों क्योंकि उनको दूसरा कोई शरण नहीं है किंतु किया स्वयम नहीं ठहर पायेगी। तद्वत् सक धातुओंकी अर्थरूप क्रियाएं भी तो अपनी आत्मामें रहनेका अवश्य विशेष करती हैं। जैसे देवदास मातको पकाता है । यहां पकानारूप क्रिया स्वयं अपने या देवदचमें नहीं रहती है किंतु कर्ता और क्रिया इन दोनोंसे सर्वथा मित्र हो रहे मातरूप कर्ममें ठहरती है। ऐसे ही देवदत्त मातको ला रहा है यहां खानारूर क्रिया भी स्वयं अपने आपमें नहीं रहती है। ऐसे ही जान ज्ञानको जानता है । यह सकर्मक क्रिया भी अपने आपमें नहीं रह सकती है। आचार्य कहते हैं कि यदि