Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्तान्तिामा
यदि आप ज्ञापपक्ष न मानकर कारकपक्ष लोगे सो तो यह युक्तियोंसे रहित ही है। मला कहीं ज्ञान और ज्ञेयके प्रकरणमे क्या कोई कारकपक्ष लेता है ! आप स्वयं विचारो । अमिका धूम हेतु शापक है किन्तु कार को घूमका ही नामे कारक हेतु है । उस कारण ये नैयायिक खोग विशेष्य विशेषण के ज्ञानको अज्ञात हुये को ही ज्ञापक कह रहे हैं । अतः ये ज्ञेय शापकभात्रको न समझते हुए अवश्य ही आत्माको जाननेवाले नहीं हैं यह बात सर्वथा सच्ची है । इनके यहाँ ज्ञान अपनेको नहीं जानता है और आत्माका स्वयंको नहीं जान पाता है ।
स्यान्मतम्, विशेषणस्य शानं न ज्ञापकं नापि कारकं लिङ्गवच्चक्षुरादिवच्च, किं सहि शतिरूपं फलम् । तच्च प्रमाणाजातं चेसावतैवाकांक्षाया निवृत्तिः फलपर्यन्वत्वात्तस्या, विशेष्यज्ञानस्य ज्ञापकं तदिस्यपि वाते तस्य तत्कारकत्वात् ।
नैयायिकोंका यह मत भी होवे कि घूम हेतु जैसे वदिका ज्ञापक हेतु है वैसे विशेषणका ज्ञान ज्ञाएक हेतु नहीं है और चक्षु, पुष्य, पाप, आलोक आदि जैसे चाक्षुषप्रत्यक्षके कारक हेतु है वैसे विशेषणका ज्ञान कारक हेतु भी नहीं है । तो क्या है ! सो सुनो! हम विशेषणके शानको अविस्वरूप फल मानते हैं। विशेषणके साथ इन्द्रियों के सन्निकर्ष हो जानेको प्रमाण मानते हैं । उसका फल विशेषणका ज्ञानरूप प्रमा उत्पन्न हो जाना है । एवं वह शतिरूपी फल भो ही प्रमाणसे नहीं मी ज्ञात हो किन्तु प्रमाणसे उत्पन्न है । इतनेसे ही आकांक्षाकी निति हो जाती है। अर्थात् तीसरे, चौथे, पांचर्म, ज्ञानोंके उठानेकी आवश्यकता नहीं होती है। जिससे कि अनवखा होवे । जब तक फल प्राप्त. नहीं होता है तब तक प्रमाणोंसे झात करते रहनेकी वह आकांक्षा रहती है किंतु शतिरूप फलके उत्पन्न होते ही ज्ञानोंके जाननेकी आकांक्षा दूर हो जाती है । अतः वह नहीं जाना हुआ भी फलरूप विशेषणज्ञान अपने विशेष्यके ज्ञानका ज्ञापक हेतु शे जाता है । ग्रंथकार कह रहे हैं कि इस प्रकार नैयायिकोंका कहना भी कोरी याद है । क्योंकि आपने अपने दर्शनशासमें विशेषणके ज्ञानको विशेष्य ज्ञानका कारक हेतु इष्ट किया है । और अब फंस कर अनुपाय दशाम ज्ञापक हेतु स्वीकार कर रहे हैं । यह अपसिद्धांत नहीं तो क्या है ।।
प्रमाणत्वात्तस्य ज्ञापकं तदित्यप्यसारं साधकतमस्य कारकाविशेषस्य प्रमाणत्ववचनात् ।
पसिवादी कहता है कि विशेषणका शान यथापि. विशेषणके साथ हुये इंद्रियोंके सनिक कर प्रमाणका फल है किंतु विशेष्यकी ज्ञप्तिका कारण भी है । अतः वह विशेषणज्ञान प्रमाण हो जाने के कारण विशेष्यका ज्ञापक हेतु हो जाता है। यह भी नैयायिकोंका कहना निस्सार है क्योंकि प्रमितिको अत्यंत प्रकृष्टरूपसे साधनेवाले विशेष कारकको आपने प्रमाण होना कहा है। आपके मनसे यो विशेष्यके साथ इंद्रियोंका सनिकर्ष ही विशेष्यकी चसिका जनक हो रहा प्रमाण हो सकता है। विशेषणशान नहीं ।