Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
हमारे कथञ्चित् नित्यपनेको सिद्ध करनेवाला सत्त्व हेतुका बृहस्पतिमत के अनुयायी चार्वा कोंकी परिस्थिति से घट, पट, आदिकों करके व्यभिचार देना युक्त नहीं है क्योंकि वास्तविक रूप से देखा जाय तो उक्त युक्तिसे उन घट आदिकोंको कथञ्चित् नित्य अनित्यपनास्वरूप उच्छेद प्रसिद्ध हो रहा है। भावार्थ--घट आदि नाशके साथ स्थिति देखी जाती है, मृतिकाका अन्वय रहता है, रूपवत्त्व, रसवत्व बना रहता है । घटको तोड, फोड, पीस और जला दिया जाय फिर भी परमाशुओं को कोई नष्ट नहीं कर सक्ता है। केवल देशसे देशांतर या स्थानसे स्थानांतर होता रहता है। असंख्य पदार्थ नष्ट होते रहते हैं पैदा होते हैं । किंतु जगत् का बोझ एक रत्तीभर भी घटता बढ़ता नहीं है । सुकाल दुष्काल पडनेपर भी संसारभरको तोलनेवाले कांटोंकी सूई वालाम भी हटती नहीं है ।
२५८
यतश्चैवं परमार्थतो घटादीनामपि नित्यानित्यात्मकत्वं सिद्धं ततो बृहस्पतिमतानुष्ठानेनापि न सवस्य घटादिभिव्यभिचारो युक्तस्तेन तस्याने कवेिनावाधितत्वात् ।
जिससे कि इस प्रकार घट आदिकों को भी वस्तुदृष्टिसे नित्य अनित्य स्वरूपपना सिद्ध हो चुका । तभी तो बृहस्पति ऋषिके मत के अनुसार आचरण करनेसे भी सत्त्व - हेतुका घट आदिकों से व्यभिचार देना चार्वाकको युक्त नहीं है । उस सत्त्व हेतुकी उन नित्य अनित्यरूप अनेक धर्मो के साथ व्याप्ति होने में कोई भाषा नहीं है ।
न च प्रमाण सिद्धेन परोपगममात्रात् केनचिद्धेतोर्व्यभिचारचोदने कथिद्धेतुख्यमिचारी स्यात् । वादिप्रतिवादिसिद्धेन तु व्यभिचारेन सत्त्वं कथञ्चिदनादिपर्यन्तत्त्वे साध्ये व्यभिचारीति व्यर्थमस्याहेतुकत्व विशेषणं अहेतुकत्वस्य हेतुकत्वे सत्त्वविशेषणवत् ।
केवल दूसरोंके मनमाने तत्त्वोंके स्वीकार कर लेनेसे प्रमाणों करके नहीं किसी भी पदार्थ के द्वारा सच्चे हेतुमे यदि व्यभिचार नामक कुचोद्य दिया जावेगा कोई भी हेतु अव्यभिचारी न हो सकेगा। महिमान् धूमात् " यह प्रसिद्ध हेतु मी सरोवर में निकलती हुयी भापको धुआं समझनेवाले प्रांतपुरुषके द्वारा व्यभिचारी बना दिया जा सकेगा । इस पोलको हटाने के लिये वादी और प्रतिवादियोंसे प्रसिद्ध स्थल करके हेतुको व्यभिचार देना न्याय्य होगा, तथा च हमारा इष्ट किया सस्वहेतु तो पदार्थोंकों कथञ्चित् अनादि अनंत सिद्ध करने में व्यभिचारी नहीं है । यों फिर नित्य सिद्ध करनेके लिये इस सत्त्वहेतु अहेतुकपनारूप विशेषण देना व्यर्थ है । भावार्थ- नैयायिक, चार्वाक और मीमांसकोंने घट और मागभावने अतिम्याप्सिको दूर करते हुए " सदकारणवन्नित्यं " यह नित्य पदार्थका लक्षण किया है अर्थात् जो सत् विद्यमान होकर अपने बनानेवाले कारणोंसे रहित है, वह नित्य है । घट सत् है,
I
अकारणवान् नहीं क्योंकि
सिद्ध हुए बाहे
तो ऐसी दशा में