Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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कालमै होनेवाले अनेक आकारोंका खण्डन किया है। जो वादी सब देशकाकमै अनुभव किये गये अंशोंका खण्डन करता है उसको विचारपूर्वक कार्य करनेवालापन नहीं बनता है । और दूसरे पक्ष के अनुसार एकपनेका लण्डन तो आप कर नहीं सकते हैं अन्यथा अपसिद्धान्त हो जावेगा । तस्मादबाधिता संवित्सुखदुःखादिपर्ययैः ।
समाक्रान्ते नरे नूनं तत्साधनपटीयसी ॥ १७७ ॥
उस कारण हर्ष, विवाद, शान, इच्छा आदि पर्यायोंसे पूर्णरूप से ठसाठस ब्याप्त होरहे एक आत्मामें बाधारहित प्रत्यभिज्ञान हो रहा है। वह निकाएक उन अनेक याकारोंको सिद्ध करनेके लिये बहुत अच्छा दक्ष है। श्रेष्ठ प्रमाणसे वस्तुतत्वकी सिद्धि हो जाती है।
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न हि प्रत्यभिज्ञानमतिः सुखदुःखादिपर्यागात्मके पुंसि केनचिद्वाभ्यते तस्तत्सापनपटीयसी न स्यात् । ततो नाशेषस्वभावशून्यस्य विन्मात्रस्य सिद्धिस्वद्विपरीतात्मप्रतीत्या पातित्वात् ।
सुख, दुःख आदि अनेक पर्यायोंके साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखनेवाले एक भस्मामें उत्पन्न हुआ पत्यमिश्रानस्वरूप मविज्ञान किसी भी प्रमाणसे बाधित नहीं होता है। जिससे कि मनेक गुण, पर्वाभ, धर्मो में व्यापक हो रहे उस एक वस्तु सिद्ध करनेमें बहुत बढिया कुशल न होता । उस कारण तृतीय पक्षके अनुसार पौद्रोंके द्वारा माना गया कल्पनाका अर्थ ठीक नहीं है । यों सम्पूर्ण स्वभावोंसे रहित होरहा शुद्ध संवेदन सिद्ध नहीं हो पाता है क्योंकि तुम्हारे माने गये संवेवनके सर्वथा विपरीत ऐसे अनेक धर्मालक आत्माओंकी प्रमाणसिद्ध मसीति करके तुम्हारा मन्तव्य बाधित हो जाता है।
नीलवासनया नीलविज्ञानं जन्यते यथा । तथैव प्रत्यभिज्ञेयं पूर्वतद्वासनोद्भवा ॥ १७८ ॥ सद्वासना च तत्पूर्ववासनावलभाविनी । सापि तद्वदिति ज्ञानवादिनः सम्प्रचक्षते ॥ १७९ ॥ तेषामप्यात्मनो लोपे सन्तानान्तरवासना । समुद्भूता कुतो न स्यात् संज्ञाभेदाविशेषतः ॥ १८० ॥
बौद्ध कहते हैं कि जैसे नीलका विकल्पवान आत्मामें बैठे हुए कुत्सित संस्कारोंसे उत्पन्न हो
जाता है वैसे ही जैनोंका यह प्रत्यभिज्ञान भी उसको बनानेवाले पूर्वके संस्कारोंसे उत्पन्न हो जाता