Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वाचिन्तामानः
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देखा जाता है इस कारण सर्वथा मेवका एकांत माननेवाले बौद्धोंके मतमें व्यभिचाररहित कार्यकारण भाव कैसे भी नहीं बनता है। इसी पातको प्रसिद्ध कर फहते है-द्रव्यप्रत्यासत्तिको नहीं मानकर व्यर्थ चाहे जितना भटकते फिरो।
कालानन्तर्यमात्राचेत्सर्वार्थानां प्रसज्यते । . देशानन्तर्यतोऽप्येषा किन्न स्कन्धेषु पंचसु ॥ १८६ ॥ भावाः सन्ति विशेषाञ्चेत समानाकारचेतसाम् । विभिन्नसन्ततीनां वै कि नेयं सम्प्रतीयते ॥ १८७॥
यदि केवल काल के अध्याहिलोले पूर्वपागः परमगाः करण माहोल घटके पूर्व समयका परिणाम उसके अनन्तर उचरकालमें होनेवाले ज्ञान, सुख, पट, पुस्तक आदि सभीका उपादानकारण बन जावेगा अथवा पटका पूर्वकालवी परिणाम उत्तरकालमें होनेवाले घटका उपादान कारण हो जानेका प्रसा आवेगा, इस प्रकार आगे पीछे होनेवाले सम्पूर्ण अोंको सबके उपादान उपादेयपनेका अतिप्रसंग दोष आता है। यदि आप देशके व्यवधानसे रहित पर्यायों में परस्पर कार्यकारणभाव मानोगे तो भी एक देशमे रखे हुए रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार हन पांच स्कन्धों में भी यही परस्पर कार्यकारणभाव क्यों न हो जाये है क्योंकि इन सबका देश अमिन है । वायु, घाम, आकाश और धूल का भी आपसमें कार्यकारणमाव हो जाना चाहिये। एक आकाशके मदेशपर छहों द्रव्य विद्यमान है क्षेत्रमत्यासति होजानेका कारण उनका भी उपादान उपादेयपना हो जायेगा, जो कि आपको इष्ट नहीं है।
यदि आप विशेष ( खास ) माक्प्रत्याससिसे किन्हीं विशिष्टपयायों में ही कार्यकारण भावका नियम मानोगे सब तो एक घटको ही समान आकारधारी अपने अपने भिन्न भिन्न ज्ञानोंसे जाननेवाले देवदस, जिनदत्रके ज्ञानों में भी यह कार्यकारणभाव क्यों नहीं देखा जाता है ? परस्परमें मला जिन जिन संसानों का ज्ञान, सुख, दुःख समान है वथा जो घट, पर आदिके रूप, रस लम्बाई चौडाई आदिमें एकसे प्रतीत हो रहे हैं उनमें भी मावरूपसे संबंश विद्यमान है। अतः उनमें भी एक दूसरेकी यह कार्यताकारणता बन बैठेगी, जो कि सभीको अनिष्ट है। कार्यकारणभावकी नियत हो रही प्रक्रियाका लोप हो जावेगा।
___ यतश्चैवमन्यभिचारेण कार्यकारणरूपता देशानन्तर्यादिभ्यो नैकसन्तानात्मकत्वाभिमतानां क्षणानां व्यवतिष्ठते तस्मादेवप्नुपादानोपादेयनियमो द्रव्यप्रत्यासोरेवेति परिशेषसिद्ध दर्शयति,