Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वाचिन्तामणिः
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यदि नैयायिक यों कहें कि आत्माम ही आत्मस्वजातिके रहनेका विशेषरूपसे ज्ञान हो रहा है। एवं जलमे ही जलवजातिकी वृत्तिताका बदिया ज्ञानविशेष हो रहा है। इस कारण आत्मद्रव्यमै आत्मस्वजातिके और जलद्रव्यमें जलवजातिके समवायका वह नियम सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार उत्तर कहनेपर तो हम स्याद्वादी कहते हैं कि वही सो विचार करने के लिये प्रकरण आरम्भ किया गया है. अति आत्मा ही आत्मत्यजातिके रहनेका विशेष ज्ञान किस कारण होता है ? और वही उत्तर दिया जा रहा है। यह तो वैसा ही न्याय हुआ कि हमने पूंछा, यह घोडा क्यों है ? उत्तर दिया कि क्योंकि यह घोडा है । जब कि जाति और उससे सहित जातिवालों में परस्पर अंतररहित सर्वथा भेद विधमान है तो भी वह भिन्न पडी हुयी आत्मत्वजाति " आत्मामें रहती है" इस ज्ञानविशेषको तो पैदा करे और पृथिवी, जल, आदिको आत्मत्वके रहनेका ज्ञान न करावे इसका क्या कारण है ! बताओ । एवं पृथिवीत्व, जलस्त्र आदि जातियां भी उन्ही पृथिवी, जल मादिमें ही उन ज्ञानबिशेषोंको यानी पृथिवीमें पृथिवीत्व रहता है इन ज्ञानोंको पैदा करावें, किंतु आत्मामे पृथिवीखके रहनेका ज्ञान न करावें इसमें नियम करानेवाला हेतु तुम्हारे पास क्या है ! उसे बतलाओ। ___ समवाय इति चेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रयः सति प्रत्ययविशेषे जातिविशेषस्य जातिमति समवायः सति च समवाये प्रत्ययविशेष इति ।।
विशेष नियम करनेका हेतु यदि आप नैयायिक या वैशेषिक समवायसम्बन्ध मानोगे तप सो यह वही अन्योन्याश्य दोष हुआ क्योंकि समवायसम्बन्ध भी तुम्हारे मतमें भिन्न पछा रहता माना गया है । अतः समवायसम्बन्धके नियम करानेके लिये ज्ञानविशेषकी आवश्यकता पड़ेगी। तथा च पृथिवीमें पृथिवीत्रका ही विशेषज्ञान होनेपर तो विशेष जाति पृथिवीवका उस जाति. वाली पृथिवीम समवायसम्बन्ध सिद्ध होवे और जब पृथिवी पृथिवीत्वका ही समवायसमन्ध सिद्ध हो जावे तब पृथिवीमें पृथिवीरवके रहनेका ज्ञान विशेष सिद्ध होवे ऐसे अन्योन्याश्रय दोषवार्क कार्य सिद्ध नहीं होते हैं। नैयायिक और वैशेषिकका इस विषय एकही मत है। अतः हम किसी भी शब्दद्वारा पूर्वपक्षीका यहां उल्लेख कर देते हैं।
प्रत्यासतिविशेषादन्यत एव तत्प्रत्ययविशेष इति चेत्, स कोऽन्योऽन्यत्र कर्यचित्तादाल्यपरिणामादिति स एष प्रत्ययविशेष तुरेपिसव्या, तदमावे तदघटनालातिविशेष स्य कचिदेव समवायासिद्धरात्मादिविभागानुपपत्तेरात्मन्येच शान समवेतमिहेदमिति प्रत्यय कुरुते न पुनः खादिष्विति प्रतिपत्तुमशक्तेन चैतन्ययोगादात्मनश्चेतनस्व सिद्धयेत् यतोऽसिद्धो हेतुः स्यात् ।
यदि अन्योन्याश्मय दोषका धारण करने के लिये किसी न्यारे दूसरे ही विशेषसम्मेधसे उस विशिष्ट जानके होने का नियम करोगे, तब तो वह विशेषसम्बंध कथंचिस् तादात्म्यसम्भव-रूप
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