Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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वस्वाचिन्तामणिः
चैतन्ययोगतस्तस्य चेतनत्वं यदीर्यते । खादीनामपि किं न स्यात्तयोगस्याविशेषतः ॥ १९४ ॥
चैतन्य के संबंधसे वह आत्मा चेतन है यदि नैयायिक ऐसा निरूपण करेंगे तो उस बैसम्मका समवाय तो आकाश, काल आदिकोंके मी समानरूपसे विषमान है। फिर आकाश आदिकोंको चेतनपना क्यों नहीं हो जाता है ! बताओ, ।
पंसि चैतन्यस्य समदा योगच हातिमगि समाना, समवायस्य स्वयमविविधस्यैकस्य प्रतिनियमहत्वभावादात्मन्येव ज्ञानं समवेतं नाकाशादिग्विति विशेषाव्यवसिवः।
___ जो ही चैतन्यका पुरुषमें समवाय नामका सम्बन्ध है वही समवाय माकाश, काल मादिकोंम मी कुछ अन्तर न रखता हुआ समानरूपसे विद्यमान है क्योंकि नैयायिकोंने वास्तविकपनेसे एकही समवायसम्बन्ध इष्ट किया है। विशेषताओंसे रहित यही एक समवाव अपने आप इस प्रत्येक के लिये नियमकी व्यवस्थाका हेतु नहीं हो सकता है कि "आत्मामे ही ज्ञान समवावसंबंषसे वर्तेगा आकाश आदिकों में नहीं, " जब कि समवाय एक ही है और वह भी सर्वथा भिन्न पडा हुभा है। ऐसी दशा में उक्त प्रकार विशेषरूपसे व्यवस्था नहीं हो सकती है।
मयि ज्ञानमितीहेदं प्रत्ययानुमितो नरि। ज्ञानस्य समवायोऽस्ति न खादिष्वित्ययुक्तिकम् ॥ १९५॥
नैयायिक कहते हैं कि " यहां यह है " इस प्रकारको प्रतीसि सो सम्बन्धको सिद्ध करती है । मुझ मात्माम यह शान है इस आकारवाले प्रत्यपसे भी भास्मामे ही ज्ञानके समवायका मनुमान किया जाता है। परंतु आकाश, काल आदिकमै ज्ञानके समवायका अनुमान नही हो सकता है क्योंकि भाकाश और ज्ञानका ससमी विमक्तिसे युक्त पदके साथ आकांक्षा रखनेवाला प्रथमा विमति युक्त वाक्य बनता नहीं है । अंथकार कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकोका कहना युक्तियोंसे रहित है। श्रवण कीजिये,
यह कुण्डे दधीति प्रत्ययान सत्कुण्डादन्यत्र तहघिसंयोगः शल्यापादनस्तरह मयि मानमितीहेदं प्रत्ययामात्मनोऽन्यत्र खादिषु ज्ञानसमवाय इत्ययुक्तिकमेव योगस्य ।
बस चार्तिकका विवरण यो है कि " इस कुण्डमें दही है।" ऐसी प्रतीति होनेके कारण उस कुण्डके अतिरिक्त दूसरे स्थानों उस वहींके संयोगके प्रसारका आपादन जैसे नहीं दिया जा सकता है वैसे ही " यहां मुझे ज्ञान है । इस प्रकारके " यहां यह है" इस संबपके निल