Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
ताचिन्तामणिः
यदि बौद्ध यों कहें कि अनेक आकारवाका स्थाद्वादियोंका एक प्रतिभासन मी तो नहीं दीखता है क्योंकि एक अनेकपनेका विशेष है । भतः नाना आकारवाला एक पदार्थ मी घोड़े के सींगसमान असत् ही हैं। जैनोंके ऊपर ऐसा आक्षेप करनेपर तो — आचार्यमहाराज आदेश करते हैं कि
२८६
नानाकारस्य नैकस्मिन्नध्यासो ऽस्ति विरोधतः ।
ततो न सत्तदित्येतत्सुस्पष्टं राजचेष्टितम् || १७५ # संवेदनाविशेषेऽपि द्वयोः सर्वत्र सर्वदा । कस्यचिद्धि तिरस्कारे न प्रेक्षापूर्वकारिता ॥ १७६ ॥
विरोध दोष हो जाने
की प्रविष्ठा नहीं हो सकती है । इस कारण वह पदार्थ सत् रूप नहीं है। यों इस प्रकार बौद्धों का कहना सो सर्वधा स्परूपले उच्छुक राजाओंकी सी चेष्टा करना है। जैसे मनचके उद्दण्ड राजा, महाराजा लेग अपनी मनमानी याज्ञा चढाते हैं । कोई विचारक्षीक मन्त्री यदि तर्क, सुमन्त्रणा, युक्तियोंसे श्रेष्ठ मार्ग सुझाता है तो वे उसके साथ विरोध करते हैं। उसी प्रकार बौद्धोंकी राजाशा चल रही है। जबकि ज्ञानमें अनेक आकार और एकपना इन दोनोंका सब स्थान और सब फाक्रमे जब अर्तररहित समानरूपसे संवेदन हो रहा है तो उन दोनोंमेंसे चाहे किसीका स्वीकार और दूसरे किसी एक का तिरस्कार करनेपर faोंका विचारपूर्वक कार्य करना नहीं कहा जा सकता है। न्यायोचित संतों में पक्षपात नहीं करना चाहिये ।
नानाकारस्यैकत्र वस्तुनि नाभ्यासो विरोधादिति श्रुषाणो नानाकारं वा तिरस्कुवा ? नानाकार चेत्सुव्यक्तमिदं राजवेष्टितम्, संविन्मात्रवादिनः स्वरुच्या संबेदनमेकमनंनं स्वीकृत्य नानाकारस्य संवेद्यमानस्यापि सर्वत्र सर्वदा प्रतिक्षेपात् वस् प्रेवापूर्व कारित्वायोगात् ।
44
एक पदार्थ में अनेक आकारोंके स्थित रहनेका निश्चय नहीं है क्योंकि विरोष है " इस प्रकार माटोपसहित कहता हुआ बौद्ध उन दोनों मेंसे नाना आकारोंका खण्डन करता है ! अथवा क्या वस्तुसे एकपन धर्मको निकाल कर फेंकना चाहता है ! बतावै ।
पहिला पक्ष होनेपर यदि नाना आकारोंका खण्डन करेगा तब तो मह सबके सन्मुख खुश्क म खुल्ला राजाभोंकीसी चेा करना है क्योंकि शुद्ध संवेदनके अद्वैवको कहनेवाले बौद्धने अपनी ave मनमाने fिier एक संवेदनको स्वीकार कर ज्ञानमें जाने जा रहे भी और सब देश सभा सद