Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
आत्माएं और बहिरंग घट पट आदिक सम्पूर्ण वस्तुएं परमार्थरूपसे उन दो कल्पनाभों से रहित सिद्ध हो जाओ। देखो ये झूठ मूठ अनेक प्रकारकी सम्पूर्ण कल्पनाएं नियम करके अतत्त्वश्रद्धान के वशसे गढ़ ली जाती हैं। क्योंकि जब कल्पनाओंसे रहित और अनेक स्वभाववाले तथा अनेकांतपनेकी भिन्नजाति से युक्त होरहे वस्तुका ( में ) बाधारहित स्पष्टरूपसे प्रकाशन हो रहा है। ऐसा होते संत तो अपरमार्थभूत धमकी कल्पना करना मिध्यात्वपिशाचसे ग्रसित हुये जीवका बहक जाना मात्र है । सम्पूर्ण पदार्थ वास्तविक अनेक - धर्मस्वरूप हैं । उनमें मिध्यादृष्टिजनोंकी अनेक कल्पित धर्मोको आश्रय करनेवाली वस्तुसे पृथग्भूत कल्पनाबुद्धिये किसी को विध्यास फर्मके उदयसे हुयीं खून प्रवर्त रही हैं। जगत् अनेक कुमत छा रहे हैं, कोई बादी कहता है कि आत्मा अनित्य ज्ञानस्वरूप है । कोई आमाको नित्य मानता है । कोई एक और कोई अनेक, एवं अंशोंसे रहित और सहित आदि धर्मोकी गढंत ढाल रहे हैं किंतु ये सब मिथ्याज्ञानजनित कुनय हैं । यदि ये ही धर्म वस्तुकी भित्ति पर परस्परकी अपेक्षा रखते हुए माने जावें तो वे वचन या ज्ञान सुनय हो जाते हैं। क्योंकि अनेक धर्मवाली वस्तुसे पृथक् पृथक् मानकर एक एक धर्मको विवक्षावश समीचीन कल्पनासे न्यारा न्यारा जाना है। एकसे दूसरेकों अलग कर अनेक धर्मोको विषय करनेवालीं सुनयें विवक्षावश जीवों के अच्छी तरह वर्त रहीं हैं।
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यस्मान्मिथ्यादर्शनविशेषवशान्नित्याद्येकान्ताः कल्पनाः स्पष्टं जात्यन्तरे वस्तुनि निर्बाधमवभासमाने तत्वतो न सन्तीति स्वयमिष्टम्, यतश्चानेकान्ते प्रमाणतः प्रतिपन्ने कुतश्चित्प्रमातुर्विवक्षाभेदादपोद्धारकल्पनानि क्षणिकत्वाद्यनेकधर्मविषयाणि प्रवर्तन्ते परस्प रापेक्षाणि सुनयव्यपदेशभाजि भवन्ति ।
जिस कारण से कि सर्वथा एकांतोंसे रहित कथञ्चित् अनेक एकांतस्वरूप अनेकांतात्मक वस्तुका बाधारहित जब विशदरूप से प्रतिभास हो रहा है ऐसा होते सन्ते तो एकांत, विपरीत, मिथ्यादर्शने की या गृहीतमिध्यात्वविशेषको पराधीनता से उत्पन्न हुए नित्य अनित्य आदि धमके आग्रहरूप कल्पित किये जारहे एकांत वास्तविक रूपसे नहीं है । यह बात स्वयं इष्ट हो जाती है। और भी यह बात है कि जब कि प्रमाणोंसे अनेकांत सिद्ध हो रहा है प्रतीत भी कर लिया है तो प्रमिति करनेवाले किसी भी आत्माकी विवक्षा के भेदसे वस्तु न्यारे न्यारे पृथक् कर माने गये क्षणिकत्व, नित्यत्व, एकत्व, अनेक धर्मोको विषय करनेवाले भी ज्ञान प्रवर्तित होते हैं । वे सभी धर्म परस्पर अपेक्षा रखनेवाले हैं । जब उन धर्मोकी समीचीन कल्पनाएं परस्पर में अपेक्षा रखती हैं तब तो वे सुनय इस नामसे व्यवहारको घारने वाली कही जाती हैं ।
वस्मादशेष कल्पनातिक्रांतं तच्चमिति सिद्धं साध्यते नहि कल्प्यमाना धर्मास्तवं तत्कल्पनमात्र बा, अतिप्रसंगात् तेनांतहि तच्च तद्विनिर्मुकमिति युक्तमेव ।