Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२८२
सत्यापितामणिः
तो एक ही है और न निश्चयसे अनेक ही है तब तो क्या है ! सो उत्तर मुनिये, कवचित् दन्यरूपसे आत्मा एक है और पर्यायरूपसे आमा स्यात् अनेक है । उन सर्वषा एकांतोंसे मिल तीसरी एकानेकात्मकत्वजातिके स्वभावसे ही आमाका प्रतिमास होरहा है। अभ्य दूसरे पकांसपकारोंसे एक बार मी आमाका देवन नहीं हुआ है। इस कारण एक आमाको अनंतपयर्यायस्वरूपपना विरुद्ध नहीं है । जैसे कि बौदोंके चित्रज्ञानको अनेक नील, पीस भादिक आपारोले सहित होकर चित्र विचित्रपना विरुद्ध नहीं है । अब तक आस्माका अनंत पर्यायाम म्याप्त होना सिद्ध करने के लिये "कमतोऽनवपर्यायात् ।" इस एक सौ साठमी कारिका उदाहरणरूप दिये गये चित्रज्ञानको घटित करके अनंत सहभावी और क्रममावी पर्याय में रहनेवाग एक भरण आत्मा द्रव्य सिद्ध कर दिया है।
भ्रान्तेयं चित्रता ज्ञाने निरंशेऽनादिवासनासामादवभासेत स्वप्नादिज्ञानवद्यदि ॥ १६८ ॥ तदा भ्रान्तेतराकारमेकं ज्ञानं प्रसिद्धयति । भ्रान्ताकारस्य चाऽसत्त्वे चित्तं सदसदात्मकम् ॥ ११९ ॥ तच्च प्रवाधतेऽवश्य विरोधं पुंसि पर्ययैः।
अक्रमैः क्रमवनिश्च प्रतीतत्वाविशेषतः ॥ १७० ॥ बौद्ध कहते हैं कि वास्तवमै ज्ञान हमारे यहां कार्यता, कारणता, ग्राह्यता, प्राहकसा, आमास और आभासीपन आदि अंशोंसे रहित माना गया है । स्वम देखते समय या सन्निपात होनेपर सपा अधिक मादकवस्तुओं आदिका उपमोग करनेपर विना कारण केवळ अनाविकास के मिप्यासंतारोकी शक्तिसे यों ही झूठे अनेक नाकारवाले हान प्रतिभासित होते जाते हैं। उसी प्रकार आमते हुए भी आत्मामे अनादिकालसे बेठे हुए कुस्थित संस्कारों के पल्से शानो चित्र विचित्र साकार ज्ञात हो जाते हैं। वस्तुतः हानमें चित्रपन यह भ्रमरूप है । अब भाषा कहते हैं कि यदि शुद्ध संवेदनाद्वैतवादी बौद्धोका यह मत है प तो एक कानमें स्वयं झंडे आकारों के प्रतिभास करनेकी अपेक्षासे भ्रान्तपना भाषा और अपनेको ग्रहण करनेकी अपेक्षासे अभ्रांसपना आया । इस प्रकार एक ज्ञान मियाज्ञान और प्रमाणपन यों वो विरुव भाकार प्रसिद्ध हुए। पहले एक मात्माको भनेकपायोंमें व्यापक होकर रहनेका यही रात सही।
यदि भ्रांत माकारको कम्मापुत्रके समान असत् मानोगे तो मीशानमें सकी अपेक्षा विध. मानता और भ्रांस आकारोंकी अपेक्षासे अविषमानता रह गपी अतः एक शान सवात्मक और भसरस्मक होगया । तथा यों तो वही दृष्टांत एक आस्माम अनेक पर्यागके साथ रहने विशेषको