Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्थापितामणिः
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अवश्य वाधा दे रहा है । जैसे ज्ञानमै सत् असत्पना आपको प्रतीत होरहा है वैसे ही आलाका ऋमसे रहित होकर साय ठहरनेवाले पुणस्वरूप-पर्यायो त कमसे होनेवाले मतिज्ञान, सुल, मावि पर्यायोंके साथ रहना मी समानरूपसे प्रतीत होरहा है कोई अंतर नहीं है। पर्यायका सिद्धांतपक्षण अखण्डन्न्यके अंशोंकी कल्पना करना है। आमाके सुख, चारित्र, चेतना, मखिल, वस्तुत्व आदिक तीनों कासमें ध्रुव रहनेवाले सहभावी गुणरूप अंश है और श्रुतज्ञान, इच्छा, उत्साह, म, प्रतिक्षणपरिणति लम्बाई, चौलाई पानि कमसे होने वाली अर्थपर्याय और अंजनपर्याचे उत्पादविनाशवा अंश हैं।
चित्रातमपि माभूत् संवेदनमात्रस्य सकलविकल्पशून्यस्योपगमादित्यपरः। तस्यापि किमयारोष्यमाणो धर्मः कल्पना, मनोविकल्पमात्र था, वस्तुनः स्वभावो था ! प्रथमद्विवीयपक्षयोः सिरसाधनमित्युच्यते
यहाँ पौडका कोई एक देशमनानुयायी म्यारा विद्वान यों कह रहा है कि वित्राद्वैत भी मत हो, हम वैमाषिक सो सम्पूर्ण संकल्प विकल्पोंके कसित हुये भाकारोंसे रहित होरहे केवरू शुद्ध शानको ही स्वीकार करते हैं। भाचार्य कहते हैं कि उस एकदेशीसे हम पूंछते है कि आप कल्पनागोसे रहित शुद्ध बान मानते हैं। यहां माप कल्पनाका क्या अर्थ करते हैं ! बताओ वस्तुमे जो पर्म विधमान नहीं है उस धर्मका बोटी देर के लिये वस्तुमें भारोप करना कल्पना माना है ! या दरिद्रोंके मनोरथसमान मनके केवल संकल्पविकल्पोंको कल्पना इष्ट किया है ? अथवा वस्तुकी स्वमायकल्पना है । पहिले और दूसरे पक्षमै सिद्धसाधन बोष है यानी पहिली दो फस्पनाओंसे रहित हो रहेको हम भी समीचीन ज्ञान मानते हैं । इसी पातको वाचिकों द्वारा कहते हैं- सावधान होकर पुनिये।
निश्शेषकल्पनातीतं संचिन्मात्रं मतं यदि । तथैवान्तर्बहिर्वस्तु समस्तं तत्त्वतोऽस्तु नः ।। १७१ ॥ समस्ताः कल्पना हीमा मिच्यादर्शननिर्मिताः। स्पष्टं जात्यन्तरे वस्तुन्यप्रषाधं चकासति ॥ १७२ ॥ अनेकान्ते झपोद्धारबुद्धयोऽनेकधर्मगाः । कुतश्चित्सम्प्रवर्तन्तेऽन्योन्यापेक्षाः सुनीतयः ॥ १७३ ॥
पदि बौद्ध यह मानेंगे कि आरोपित धर्म और मानसिक संकल्परूप सम्पूर्ण कल्पनाओसे रहित हो रहा अकेला छान ही फेवक तत्व है तो इसी प्रकार हम स्याहादियोंके व मी भतरंग