Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
चित्र न तो एक है और न अनेक है किन्तु एक और अनेकसे न्यारी तीसरी ही जातिवाला पदार्थ है । अतः एकपने और वित्रपने में कुछ मी विरोध नहीं है, जैसे कि स्याद्वादियों के मत में कथञ्चित् भेदका कथञ्चित् अभेदसे विरोध नहीं है। बौद्धोंके इस प्रकार भाषण करनेपर तो हम जैन भी कहते हैं कि उसी प्रकार का श्री के तार विरोधको सकता है। जैसे घट और
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धारण करता है । भावार्थ - अपने से सर्वथा विपरीतके साथ विरोध हो घटाभावका, सर्वज्ञता और अज्ञताका, रूपरहित और रूपसहितपने का, एवं जीवों में बद्ध और मुक्तका तथा केवलज्ञान और क्षायोपशमिक ज्ञानका विशेष होना सम्भव है क्योंकि इन उक्त दोंके जोडोंमेंसे एकका निषेध करनेपर दूसरेका विधान या दूसरेका निषेध करनेपर पहिलेका विधान अवश्य हो जाता है | अतः दोका तुल्यबलवाला विप्रतिषेध होनेपर विरोध माना गया है किंतु जहां तीन चार कोटियां हो सकती है वहां विरोध होवे, यह एकांत नहीं हो सकता है । कथञ्चित् एकपनेका कथञ्चित् अनेकपना भाई है । हां ! सर्वथा भनेकपना विरोधी है । स्याद्वाद सिद्धात तीसरी अवस्था माननेपर पूर्वके प्रकृत दोनें विरोध नहीं सिद्ध हो सकता है । जैसे बाजीगरके द्वारा स्त्री या पुरुषसंबंधी प्रश्न करनेपर चतुर बालक अपनेको पुरुष होनेका उत्तर देता है। और मूर्ख, पण्डितपनेका प्रश्न करनेपर पण्डित होनेका उत्तर देता है, एवं मनुष्य और पशुमेंसे एकके पूंछने पर स्वयंको मनुष्य मानता है । किंतु नारकी या स्त्री तथा घोडा या हाथी इन दोनोंमेंसे तुम कौन हो ! ऐसा पूंछनेपर कुशल बालक दोनोंका निषेध कर देता है क्योंकि वह बालक उक्त दोनों अवस्थाओं से भिन्न तीसरी जातिवाली अवस्थाको धारण करता है । तुम मनुष्य है ? या जीव है, अथवा पञ्चेन्द्रिय है ! एवं स है ! ऐसा प्रश्न करनेपर चारोंका विवस्वरूप उत्तर दे देता है | अतः अनेक पर्यायों के साथ एक आत्माके रहने का कोई विरोध नहीं है ।
नैकं नायकम् किं वर्हि ? चित्र चित्रमेव, तस्य जात्यन्तरत्वादेकत्वानेकत्वाभ्या मित्यविरुद्धं चित्राद्वैत संवेदनमात्रं बहिरर्थशून्य मित्युपगमे, पुंसि जात्यन्तरे को विरोधः १ सोsपि हि नैक एव, नाप्यनेक एव, किं तर्हि १ स्यादेकः स्यादनेक इति, ततो जात्यन्तरं तथा प्रतिभासनादन्यथा सकृदप्यसंवेदनात् इति नात्मनोऽनन्तपर्यायात्मता विरुद्धा विज्ञानस्य चित्रतावत् ।
सौगत बोल रहे हैं कि चित्रज्ञान न तो एक है और न अनेक ही है तो क्या है ? ऐसा पूछने पर हम बौद्ध कहते हैं कि वह चित्रज्ञान चित्रस्वरूप ही है । एकपन और अनेकपनसे भिन्न तीसरी ही चित्रत्वजातिवाला वह चित्रज्ञान है । इस प्रकार चित्र और अद्वैत शब्दका समास भी हो जावेगा और बहिरंग घट, पट आदि भेदोंसे सर्वथा रहित होरहे केवल अकेले चित्रज्ञानका संवेदन भी विना निरोधके हो जायेगा | अंधकार कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा स्वीकार करेंगे तो आम भी तीसरी जातिका स्वभाव मानने पर क्या विशेष है ? कहो तो सही। वह आत्मा भी न
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