Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्यार्थचिन्तामणिः
सकते है ! क्योंकि ज्ञान एक सामग्री के अधीन होते हुए स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के विषय है । जिस कारणसे कि उनको उसका उपादान कारणपना नहीं सिद्ध हो पाता अर्थात् इंद्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षको एक संतानपना सिद्ध होगया तो रसना इंद्रिय, चक्षु इंद्रियसे एक ही समयमै होनेवाले रूप आदिकके पांचों ज्ञानों को भी एक संतानपना सिद्ध हो ही जाता है ? इस प्रकार पूर्वसमयवती कोई भी एक रासनप्रत्यक्ष या चाक्षुष प्रत्यक्ष उत्तर कारने होनेवाले शर्शन प्रत्यक्ष या प्राण प्रत्यक्षका उपादान कारण क्यों न सिद्ध होगा ? बताओ और जब पूर्व उत्तरवर्ती चाहे किन्हीं भी ज्ञानों में वह उपादान उपादेय भाव सिद्ध हो गया तब तक संतानस्वरूप हो जाने से उन रूप रस आदिकके पांच ज्ञानों में कथञ्चित् द्रव्यदृष्टिसे एकपना भी सिद्ध हो जाता है। इस लिये हमने बहुत अच्छा दूषण कहा था कि बौद्ध लोग नील पीत आदिकके आमासोंको मिलाकर यदि एक चित्रज्ञान बनाना चाहते हैं तो उनको कचौड़ी खाते समय होनेवाले रूप आदिकके पांच ज्ञानोंका भी मिश्रण कर एक चित्रज्ञान बन जानेका प्रसंग आवेगा। इस प्रकार आपके ऊपर लगाये गये दोषको पुष्ट करनेवाला प्रकरण समाप्त होता है ।
चित्राद्वैताश्रयाच्चित्रं तदप्यस्त्विति चेन वै । चित्रमद्वैतमित्येतदविरुद्धं विभाव्यते ॥ १६६ ॥
इष्टापति करते हुए बौद्ध कहते हैं कि हम घट, पट आदिक पदार्थ या देवदत्त, जिनदत्त तथा जड, चेतन सब पदार्थों को चित्रज्ञानस्वरूप ही मानते हैं । संसारमै चित्रज्ञानरूप ही एक पदार्थ है और कुछ भी नहीं है । इस कारण चित्राद्वैतका आश्रय कर लेनेसे रूप आदिकके पांच ज्ञानोंका भी मिलकर वह एक चित्रज्ञान मन जाओ । अच्छी बात है । इसमें हमारे ऊपर कुछ मी दोष नहीं है प्रस्तुत गुण ही है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंको चित्रज्ञानका ही एकांत रूप अवधारण करना उचित नहीं है क्योंकि विचार करनेपर चित्र और अद्वैत ये दोनों निम्यसे अवरुद्ध सिद्ध नहीं होते हैं किंतु विरुद्ध ही हैं । अद्वैतका अर्थ शुद्ध एक है और चित्र अनेकों से मिलकर बनता है । चित्र और अद्वैत शब्द समास होनेकी सामध्ये ही नहीं है। जैसे कि पण्डित और मूर्ख शब्दका समास नहीं होता है । यों शब्दशक्तिका कुछ भी विचार नहीं कर नाहे जो अनर्गल कह बैठो, कोई रोकता नहीं है । परामर्श करोगे तो पता चल जायगा ।
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चित्रं ह्यनेकाकारमुच्यते तत्कथमेकं नाम ? विरोधात् ।
to कि अनेक आकारोंसे युक्त होरहे को चित्र कहते है इसकारण वह चित्र मला अद्वैत यानी एक कैसे हो सकता है ?' क्योंकि चित्रविचित्रपनेका एकपनेके साथ विरोध है ।
तस्य जात्यन्तरत्वेन विरोधाभावभाषणे । तथैवात्मा सपर्यायैरनन्तैरविरोधभाक् ॥ १६७ ॥