Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पत्यापिन्तामणिः
पडी हुयी हैं। वे रूप आदिकके पाच शान उस वासनाको पबुद्ध करा देते हैं ! इस जगी हुयी वासना उस अनुसन्धानको उत्पन्न कर देती है, ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूछते हैं कि क्या कारण है जिससे कि वे पांच ज्ञान ही अनुसन्धान करानेवाली उस वासनाका प्रबोध करते हैं। चाहे कोई भी ज्ञान मुठी वासनाको क्यों नहीं जगा देता है ? बताओ इसके उत्तर पौद्ध यों कहे कि उस मकार होता हुआ कार्य देखा गया है । सो कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि दूसरे प्रकारोंसे मी कार्य होना देखा गया है, जब कि रूप आदिक पांच ज्ञानोकी उत्पत्तिके पहिले भी मैं इस पदार्थका देखनेवाला, चखनेवाला, होऊमा, इत्यादि प्रकार के प्रत्यभिज्ञानरूप विकरम होना देखा जा रहा है।
सत्यं दृष्टः, स तु भविष्यद्दर्शनाद्यनुसन्धानवासनात एव, तत्प्रबोधकथ दर्शनाघमिमुखीमावो न तु रूपादिज्ञानपञ्चकमिति तदुत्पत्तेः पूर्वमन्यादृशानुसन्धानदर्शनासासा नियमप्रतिनियतानुसन्धानाना प्रतिनियतवासनाभिर्जन्यत्वात्तासां च प्रतिनियतप्रबोधकात्ययायचप्रबोधत्वादिति चेत् , कथमेवमेका पुरुष नानानुसन्धानसन्ताना न स्युः !
बौद्ध कहते हैं कि रूप आदिक पांच झानोंके पूर्व में अनुसंधान होना आपने देखा है सो ठीक है । हम भी कहते हैं कि आपने अवश्य देखा होगा, किंतु उस अनुसन्धानका कारण ज्ञान नहीं है । वह विकल्पज्ञान सो उपादान कारके बिना ही भविष्यमें देखने, सूंघने, चाटने के अनुसम्भानको उत्पन्न करनेवाली दुष्कर्मजनित दूसरी वासनाओंसे ही उत्पन्न हुआ है, आत्मामे बैठी हुयी उन वासनाओंका जनानेवाला कारण तो देखन, सूंघने, सुनने के लिए सन्मुस होनापन है किंतु रूप पादिके ज्ञान उन वासनाओंके प्रबोधक नहीं हैं । इसी प्रकार उनकी उत्पविके पहिले भी दूसरे प्रकारके प्रत्यभिज्ञान होते हुए देखे जाते हैं। उन अनुसन्धानोंको नियम करके रूप रस आविमें ही नियमित करना पूर्वकी नियत हुयी वासनाओंसे जन्य हैं और वे पूर्वकी वासनाएं उनके गानेवाले नियमित ज्ञानोंके वशमै पढकर प्रबुद्ध हो जाती हैं । इस प्रकार मिथ्याज्ञान और वासना सभा उनके प्रबुद्ध होनेकी नियत व्यवस्था है। आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो इसी प्रकार एक आत्मामें अनुसंघानोंकी अनेक संतान कैसे न होंगी ! बताओ । अर्थात् अपने वासनाओं के नियमित होरहे अनेक शानोंसे ही उत्तरवर्ती अनेक भान होते हुये माने है तभा च देवदत्तके देले हुए का जिनदत्तको जैसे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान नहीं होता है वैसे ही चाक्षुष ज्ञानसे जाने हुए का पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिये । यह उक्त दोष तुम्हारे ऊपर अम भी लागू है।
प्रतिनियतत्वेऽप्यनुसन्धानानामेकसन्तानव विकल्पज्ञानत्वाविशेषादिति चेत्, किमेव रूपादिज्ञानानामेतम स्पाद ? करणज्ञानत्वाविशेषात् ।। ____ आप बौद्ध देखने, सूंघनेके अनुसंधानों के नियत होनेपर मी एकसंधानपना है क्योंकि वे तूंधने, स्वाद सेनेका अनुव्यवसाय करनेवाले प्रत्यभिज्ञान सभी एकसे विकल्पज्ञान में कोई अंतर,