Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वाचिन्तामणिः
तो पूर्ववर्ती रूपज्ञानसे उत्तरेम रूपज्ञान होता है । इसी प्रकार दूसरे रसज्ञानसे रस आदिका ज्ञान होना समझ लेना चाहिये तब तो देवदत्त, जिनदत्तकी संतानोंके समान भिन्न संतान हो आनेसे उन ज्ञानोंके द्वारा परस्परमें प्रत्यमिज्ञान रूप विकल्पोंको उत्पन्न करना न बन सकेगा, जैसे जिनदत्तके देते हुए को देवदत्त स्मरण नहीं कर सकता है और न प्रत्यभिज्ञान कर सकता है । वैसे ही स्पाशन प्रत्यक्षसे जाने हुए का चाक्षुष प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञान न कर सकेगा और प्राणज प्रत्यक्षसे जाने हुएका रासनपत्यक्ष अनुव्यवसाय न कर सकेगा, किंतु अनुसंधान ऐसा होता है कि जो मैंने छुआ था, उसीको देख रहा है, जिसको सूघा था, उसीका स्वाद लेरहा हूं, इस प्रकार भिन्न इंद्रियोंसे जाने हुए विषयका दूसरी इंद्रियोंसे अनुसंधान हो रहा देखा जाता है । अतः एक आत्मामें ज्ञामकी अनेक संताने मत मानो।
पूर्वानुसन्धानविकल्पवासना सज्जनिकेति चेत् , कुतोऽहमेवास्य द्रष्टा स्पष्टा घावा खादयिता श्रोतेत्यनुसन्धानबेदनम् रूपादिजानकावन्तरतिनियमा सम्भाव्यताम्।
बौद्ध कहते हैं कि हम लोग स्मरण और प्रत्यभिज्ञानको प्रमाण नहीं मानते हैं। जैसे अनेक मिथ्याज्ञान आत्मामे पहिलेसे बैठी हुयीं झूठी अविद्यारूप वासनाओंसे उत्पन्न हो जाते हैं। उसी मकार वे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान मी अपनी पूर्ववर्ती अविद्यास्वरूप मिथ्याविकल्पोंकी वासनासे स्वम ज्ञानोंके सदृश उत्पन्न हो जाते हैं। और रूप, रस आदिक ज्ञानोंका उपादान कारण भी पूर्ववर्ती जान नहीं है किंतु मिथ्या वासनाएं उनकी जनक हैं। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि नौद्ध ऐसा कहेंगे तो रूप आदिकके पांच ज्ञानके अव्यवहित उत्तरकालमें ही नियमसे ऐसा शेना कैसे सम्भावित होगा कि जो ही में इस पदार्थको देखता हूं सो ही मैं छू रहा हूं और बद्दी में संघ रहा है। इसका स्वाद-लेरहा हूं और उसको सुनता चला आरहा हूं पताओ। किंतु इस प्रकार भनुसन्धान स्वरूप ज्ञान होते हैं अतः इनका कारण वस्तुभूत ज्ञान मानना चाहिए। ___यदि खूठी वासनाओंसे अनुसन्धान ज्ञान हुये माने जागे तो एक ही आत्मामे उनके ठीक ठीक उत्पन्न होनेका नियम नहीं सम्भव होगा। भावार्थ-मिथ्यासंस्कारोंसे प्रत्यभिज्ञान होने लगेंगे तो अंटसंट चाहे जब हो जायेंगे। देश, काल और द्रव्यके नियतपनेसे नहीं होंगे। परंतु नियतरूपसे होरहे देखे जाते हैं ।
सस्य तद्वासनाप्रमोधकत्वादिति चेत्, कुतस्तदेव तस्याः प्रबोधकम् ? तथा दृष्टस्वादिति चेम, अन्यथा दर्शनाव, प्रागपि हि रूपादिजानपञ्चकोत्पत्तेरहमस्स द्रष्टा भविष्यामीत्याघनुसन्धानविकल्पो दृष्टः ।
अनुसन्धानके नियम करनेका बौद्ध यदि यह उत्तर देंगे कि मैं जिसको देखता ई, उसीको छूता ई, संपता है, इस अनुसन्धान के नियम करानेवाली मिथ्यासंस्कार रूप वासना आला न्यारी,