Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वे ज्ञान मी उम कचौडीस्वरूप अभिन्न देशमै उत्पन्न हुए हैं । कचौडी खाते समय रूप आदिके पांचों ज्ञान एक समयमै होते हुए आमामे जाने जा रहे हैं । उनमें कोई देशका भेद नहीं है। भावार्थ-पका ज्ञान किसी पदार्थ में हो और रसका जान अन्यमे हो, एवं गन्धका ज्ञान तीसरेमें हो, ऐसा नहीं है । जो एकसमयम अनेक ज्ञानोंकी उत्पत्ति होना कहते हैं उन्होंने उस प्रकार पांच ज्ञानोंका भिन्न देशमै उत्पन्न होना स्वीकार नहीं किया है किन्तु एकही वस्तुमें एक सम्यमें अनेक ज्ञान उत्पन्न हो जाते है उनकी यों कहनेकी टेव है । इस विषयमे जैनोंका सिद्धान्तमन्तव्य दूसराही है, जो कि अग्रिम प्रकरणमें प्रतीत हो जावेगा । दूसरेके मन्तव्यका खण्डन करते समय पद पद पर अपने घरकी बात कह देना हरूकापन है। संक्षेप सिद्धांन यह है कि अनेक पदार्थोंको भिन्न मिन्न रूपसे जानने वाले एक ज्ञानको समूहावलम्बन ज्ञान कहते हैं । कचौडी खाते समय भी कम कमसे पांच ज्ञान होते हैं। एक समयमें दो उपयोग नहीं हो सकते हैं । दर्शन, ज्ञान या मतिज्ञान श्रुतज्ञान अथवा अग्रह, ईहा, मवाय, धारणा या रासनप्रत्यक्ष और चाक्षुषप्रत्यक्ष ये हम लोगोंके एक समयमें दो नहीं होते हैं। लब्धिरूप चार ज्ञान भले ही हो जावे । लब्धिरूप ज्ञान प्रमितिका साक्षात् जनक नहीं है। यों तो सांधे मनुष्यले भी ललिधरूप चाक्षुष प्रत्यक्ष माना है। चित्रपट अनेक रंगोंके ज्ञानको एक चित्रज्ञान हम इष्ट करते हैं कि पौद्धोंके सदृश क्षणिक परमाणुरूप विज्ञान के अनेक नील, पीस आकारोंका मिश्रण होकर बने हुए चित्रज्ञानको हम नहीं मानते हैं। एकपदाथके अनेक ज्ञान होना और अनेक पदार्थोंका एक ज्ञान होना भी हम मानते हैं, तभी तो अंश, उपांशोंको जाननेवाले ध्यान और सर्वज्ञताकी आपत्ति होती है।
ननु चादेशत्वाचित्रचैतसिकानामभिन्नदेशत्वचिंता न श्रेयसीति चेत , कथं भिन्नदेशखाचित्रपटीपीतादिज्ञामना चित्रस्वाभावः साध्यते ? संव्यवहारात्तेषां तत्र मित्रदेशत्वासिद्ध तत्साधने तत एव शकुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानानामभिन्नदेशवासिद्धेः, सहभाविवसिद्धेश्व तत् सकृदपि पीतादिशानं चित्रमेकं माभूत् ।
बौद्ध अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि विज्ञानस्वरूप आत्माके चित्र विचित्र ज्ञानोंका अब देश हो कोई नहीं है क्योंकि वे क्षणिक विज्ञान किसी देशमें रहते हुए हमने नहीं माने है तो फिर मित्रदेशम रहनेका विचार करना कुछ अच्छा नहीं है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे . तो हम जैन कहते हैं कि आप बौद्धोंने चित्रपटके नील, पीत आदिक ज्ञानोंको भिन्न देशमें रहने के कारण चित्रपनेका अभाव क्यों सिद्ध किया है ! बताओ, आप तो भिन्नदेशपना मानते ही नहीं है।
यदि आप पौद्ध लोकके समीचीन व्यवहारसे उन ज्ञानों में भिन्नदेशपना या अभिन्न देशपना मानोगे और जहां भिन्न देशपनेका व्याहार सिद्ध नहीं है बड़ा उससे चित्रज्ञानपने का साधन