Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सस्ता चिन्तामणिः
२५५ ।
तदेवेदमिति ज्ञानादेकत्वस्य प्रसिद्धितः ।
सर्वस्याप्यस्खलद्रूपात प्रत्यक्षानेदसिद्धिवत् ॥ १५४ ॥
संपूर्ण प्राणियोंको समीचीन प्रमाणरूप प्रत्यभिज्ञानसे पूर्व अपर पर्यायोंमें एकपना प्रसिद्ध हो रहा है क्योंकि यह वही है इस प्रकार अविचलित स्वरूप प्रत्यभिज्ञान ठीक है। जैसे कि संशय, विपर्ययसे रहित हो रहे प्रत्यक्षके द्वारा घट, पट आदिकों में सबको भेद की सिद्धि होना मौद्ध मानते हैं। भावार्थ-प्रत्यक्षके समान प्रत्यभिज्ञान भी प्रमाण है अतः प्रत्पमिज्ञानका विषय एकपना यथार्थ है।
यथैव हि सर्वस्थ प्रतिपत्तुर्यस्य चास्खलितात्प्रत्यक्षाभेदसिद्धिस्तथा प्रत्यभिहानादेकत्वसिद्धिरपीति दृष्टमेव तदेकत्वम् ।
जैसे कि प्रमिति करनेवाले सम्पूर्ण जीवोंको संशय, विपर्ययसे रहित हो रहे प्रमाणस्वरूप प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम आदिसे मेवकी निश्चयात्मक सिद्धि हो रही है। वैसे ही प्रत्यभिज्ञान
और अनुमान आदिसे पूर्व, उत्तर कालमें होनेवाली पर्यायों में कम्चित् एकपना मी सिद्ध हो रहा है। इस कारण वह एकत्व प्रमाणोंके द्वारा निर्णीत ही है। कल्पना किया हुआ नहीं है।
प्रत्यभिज्ञानमप्रमाणं संवादनाभावादिति चेत्, प्रत्यक्षमपि प्रमाणं माभूत् तत एव, न हि प्रत्यभिज्ञानेन प्रतीते विषये प्रत्यक्षस्यावर्तमानात्तस्य संवादनामावो न पुनः प्रत्यक्षप्रतीते प्रत्यभिज्ञानस्याप्रवचे प्रत्यक्षस्येत्याचवाणः परीक्षको नाम ।
यदि बौद्ध यों कहें कि प्रत्यभिज्ञानके विषयमें दूसरे प्रत्यक्ष प्रमाणोंकी प्रवृत्तिरूप संवाद नहीं होने के कारण हेतु प्रत्यभिज्ञान ( पक्ष ) ममाण महीं है ( साध्य ) यों तो पौद्धोंके मतम प्रत्यक्ष मी प्रमाण न हो सकेगा, क्योंकि उस ही कारणसे, यानी क्षणिकपदार्थको जाननेवाले निर्विकल्पकप्रत्यक्षके विषयमें दूसरे प्रमाणोंका प्रवृत्त होना रूप संबावन नहीं पाया जाता है । आपने माना मी नहीं है वभी तो आपने प्रमेयके भेदसे प्रमाणका भेद माना है । प्रत्याभज्ञानके द्वारा जाने हुए एकाव, प्रत्यक्षकी प्रवृत्ति न होनेसे प्रत्यभिज्ञानको तो संवादकरनेका अभाव मान लिया जावे, किंतु फिर प्रत्यक्षसे बढ़ियां जाने हुए स्वलक्षण या क्षाणिकत्वमें प्रत्यभिज्ञानकी प्रवृत्ति न होनेसे प्रत्यक्षको संवादकपनेका अभाव न माना जावे, ऐसा कह रहा बौद्ध परीक्षक कैसे मी नहीं कहा जासकता है । वह स्वमंतव्यका कोरा पक्षपाती है ।
न प्रत्यक्षस्थ खार्थे प्रमाणांतरवृत्तिः संवादनम्, कि सर्हि १ अबाधिता संविचिरिति चेत् ।