Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वाचिन्तामणः
२७१
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तेऽपि दूषणामासवादिनः कथम्
अब आचार्य कहते हैं कि वे बौद्ध भी सच्चा दोष नहीं दे रहे हैं किंतु उनको दूषणामास कहनेकी लत पड़ी हुयी है । सो कैसे ! उसको सुनिये- ...
क्रमतोऽनन्तपर्यायानेको व्याप्नोति ना सकृत् ।
यथा नानाविधाकारांश्चित्रज्ञानमनशकम् ॥ १६० ॥
पुसल्लम गोरे : काता, शिमा, आशा, माह्यता, प्राहकता, आदि अंशोंसे रहित होरहा भी एक चित्रज्ञान नाना प्रकारके नीलाकार, पीताकार, हरिताकारोंको एकसमयमें व्याप्त कर लेता है। वैसे ही एक आत्मा भी कमसे होनेवाली अनंत पर्यायोंको एक ही बारमें व्याप्त कर लेता है। अर्थात् आत्मा अनंत मूत, भविष्य, कालकी पर्यायों में अम्वितरूपसे विषमान है । ऐसा जैन मानते हैं। बौद्धोंका दृष्टांत मिल गया।
चित्रज्ञानमनशमेकं युगपन्नानाकारान् व्यामोतीति खयमुपयन् घ्यामुवन्तमात्मानं प्रतिक्षिपतीति कर्थ मध्यस्थः । तत्र समाधानाक्षेपयोः समानत्वात् ।
. धर्मधर्मीभावसे रहित हो रहा एफ निरंश चित्रज्ञान एक समयमें अनेक आकारों को व्याप्त कर लेता है। इस बातको बौद्ध स्वयं स्वीकार कर रहा है किंतु क्रमसे होनेवाली अनंत पर्यायाम व्याप रहे आरमाका खण्डन करता है। ऐसा कहनेवाला बौद्ध पक्षपातरहित होकर म्याय करने वाला मध्यस्थ कैसे हो सकता है ! अर्थात् नहीं, जो चित्रज्ञान समाधान करोगे वैसा ही आत्माकी व्यापकताका समाधान हो जावेगा और अपनी पर्यायोम आमाके अन्चित रहनेपर जो दोषारोपण करोगे, वही दोष समानरूपसे वहां चित्रज्ञानमें भी लागू होगा, कारण कि यहां चित्रज्ञानरूप दृष्टांत सम है।
नन्वनेकोऽपि चित्रज्ञानाकारोऽशक्यविवेचनत्वादेको युक्त इति चेत्__यहां ननुका अर्थ यह है जैसे कि कोई अनिर्णीत अपराधी जजके सम्मुख प्रभकर्ता वनकर अपने दोषके निवारणार्थ उत्तरफालके फलका उद्देश्य रखकर समाधानरूप निर्दोषताका बरवान करता है वैसेही शलाकारका वेष धारण कर बौद्ध कहते हैं कि नील, पीत आदि नाना आकार अनेकही है। फिर भी उन आकारोंका पृथग्भाव नहीं किया जासकता है । अत: उन आकारोंसे मिलकर बना हुआ एक चित्रज्ञान मानना युक्त है आचार्य करते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो
यद्यनेकोऽपि विज्ञानाकारोऽशक्यविवेचनः । स्यादेकः पुरुषोऽनन्तपर्यायोऽपि तथा न किम् ॥ १६१ ॥