Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उक्त वार्तिकका विवरण करते हैं कि वस्तुके नित्य अंशको जाननेवाले द्रव्यार्थिक नयसे आत्मा अनाथनंत है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह पृथिवी आदिक तत्त्वोंके समान ( दृष्टांत ) चिरकालवर्ती होकर सद्रूप है, ( हेतु ) यहां इस अनुमानमें कहा गया हेतु व्यभिचारी नहीं है। क्योंकि बौद्धोंसे कल्पित किये गये किसी मी प्रतिक्षण में नष्ट होनेकी टेत्रवाले विपक्षमें सत्त्व हेतु नहीं रहता । भावार्थ - एक क्षण में नष्ट होनेवाला बौद्धोंका माना गया कोई पदार्थ है ही नहीं, भला स्वरविषाण में सत्त्व हेतु कैसे रहेगा ! | वहां हेतु नहीं उतरता है |
कुम्भादिभिः पर्यायेरनेकान्त इति चेन्न तेषां नश्वरैकान्तत्वाभावात् । तेऽपि हि नैकान्तनाशिनः, कथञ्चिन्नित्यद्रव्यतादात्म्यादिति स्याद्वादिनां दर्शनम्, “नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानामा कस्माचदविच्छिदा, क्षणिक कालभेदात्ते बुध्यसंचरदोषतः " इति वचनात् ।
कुछ देर तक ठहरकर नष्ट होनेवाले घट, बिजली, बुदबुद, इंद्रधनुष आदि पर्यायोंसे जैनों का सत्व हेतु व्यभिचारी है । यह चार्वाकों का कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि उन घट, बिजली आदि
सर्वथा एक अनित्य धर्मके आग्रहसे बौद्ध मतानुसार एक क्षणमें ही नाश नहीं होजाता है। वै बिजली आदि भी एकांत रूपसे नाशस्वभाववाले नहीं है क्योंकि वे किसी अपेक्षासे नित्य पुनक द्रव्य के साथ स्यात एकम एक होरहे हैं । भावार्थ - द्रव्यका पर्यायोंसे अभेद है । शक्तिरूप से पर्यायें द्रव्यमे सदा विद्यमान हैं। यह स्वाद्वादियोंका दार्शनिक सिद्धांत है । पूज्यचरण श्रीसमंभद्र स्वामीने देवागम स्तोत्रमै यों प्रामाणिक वचन कहा है कि स्याद्वादन्यायके नायक तुम भईल भगवान के ममें वे सम्पूर्ण जीव आदिक तत्त्व ( पक्ष ) कथञ्चित् नित्य ही हैं ( साध्य ) क्योंकि यह वही है इस प्रकार प्रत्यभिज्ञानके विषय है । ( हेतु ) यह प्रत्यभिज्ञान यों ही बिना किसी कारण नहीं होजाता है । इस प्रत्यभिज्ञानका कारण वह कालांतरस्थायी द्रव्य ही मूल भिति है । इस मत्यभिज्ञानका कोई भाधक नहीं है । अतः अन्वयका विच्छेद भी नहीं होता है अथवा द्रव्यरूपसे मध्य व्याधान न होनेके कारण वह एकत्वप्रत्यभिज्ञान समीचीन है ।
यदि प्रत्यभिज्ञानका विषय विच्छेदरहित नित्यद्रव्य पदार्थ नहीं माना आवेगा वो बुद्धिका संचार भी न होगा । भावार्थ -- अन्ययसहित पूर्वबुद्धिका नाश हो जानेसे दूसरी बुद्धियोंकी
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न्यारा
उत्पत्ति न हो सकेगी, बुद्धि के पूर्वपरिणाम ही उत्तरपरिणामरूप न हो सकेंगे । तथा सम्पूर्ण पदार्थ एक क्षण ठहरकर द्वितीयक्षण में नष्ट हो जाते हैं क्योंकि भिन्न भिन्न पर्यायोंका काल न्यारा है। जिन भावोंका काल भिन्न भिन्न है वे अवश्य पर्यायदृष्टिसे क्षणिक हैं, यदि कालमेव न माना जावेगा सो भी बुद्धिका दूसरी बुद्धिरूप संचार न होसकेगा, कूटस्थ एकरूप बनी रहेगी gas को बिगाडकर भरा बनाने में सुवर्णरूप से नित्यपना और कडे, बरा आदिरूपसे अनित्यपना प्रसिद्ध है।