Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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क्षणार्धचिन्तामणिः
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है (
) क्योंकि यह सर्वदा व्यञ्जकों के द्वारा योग्यतानुसार प्रगट होता
है (हेतु ) जैसे कि पृथ्वी, जल, आदि ये मूळ तत्त्व नित्य हैं ( दृष्टान्त ) यहां हेतुको दूसरे अनुमानसे सिद्ध करते हैं कि वह चैतन्य सर्वदा ही व्यञ्जकोंसे प्रगट करने योग्य है क्योंकि वह कार्य नहीं माना गया है इस हेतु अन्यथानुपपत्तिको दिखलाते हैं कि यदि चावक लोग किसी भी समय आत्माको कारणों से बना हुआ कार्य मानेंगे तो चैतन्यके अभिव्यक्ति कहने के पक्षका परिग्रह करना चावकोंको विरुद्ध पडेगा ।
वदभिव्यक्तकाल एतस्याभिव्यङ्ग्यत्वं नान्यथेत्यसिद्धं सर्वदाभिव्यङ्गयत्वं न मंतव्यस् अभिव्यक्तियोग्यत्वस्य हेतुत्वात्, तत एव न परस्य घटादिभिरनैकासिकं तेषां कार्यत्वे सत्यमिव्यंग्यत्वस्याशाश्वतिकत्वात्, स्याद्वादिनां तु सर्वस्य कथंचिन्नित्यत्वान्न केनचिव्यभिचारः ।
" गर्भकी आय अवस्था में या ज्ञान होते हुए उस अभिव्यक्ति के समय ही इस चैतन्यको प्रगट होने योग्य हम चर्वाक स्वीकार करते हैं । अन्य प्रकारसे दूसरे समय में चैतन्यको भ्रमिम्यंग्य नहीं मानते हैं । इम असत्कार्यवादी हैं। जो की पिठी और महुआ पहिले जैसे मादक शक्ति नहीं है, परंतु पुनः नयी प्रकट हो जाती है। वैसे ही चैतन्य भी नवीन दीयासलाई से आगके समान प्रगट हो जाता है। इस प्रकार जैनोंका चैतन्यको नित्य सिद्ध करने के लिये दिया गया सर्वदा अपना हेतु तो पक्षमें न रहने के कारण असिद्ध हेत्वाभास है " ग्रंथकार कहते हैं कि यह चाकों को नहीं मानना चाहिये क्योंकि "हम जैनोंने चैतन्यमे सदा ही प्रगट होनकी योग्यताको हेतु होना इष्ट किया है । चैतन्यमें प्रगट होनेकी योग्यता सर्व कालम विद्यमान है। इस ही कारण से हमारे हेतुमें दूसरे चाक लोग घट, पट आदिकोंसे व्यभिचार भी नहीं दे सकते हैं क्योंकि उन भट, पट आदिकोंको कार्यपना होते हुए प्रगट होनापन सदा विद्यमान नहीं है। शिवक, स्वास, कोष, कुशल इन अवस्थाओंमें ही घटके प्रगट होनेकी योग्यता है। उससे पहिले और पीछे नहीं है। किंतु ज्ञान सदा ही प्रगट होनेकी शक्तिसे सम्पन्न है । अतः चैतन्य नित्य है । घट आदिक नित्य नहीं हैं । "
" दूसरी बात यह है कि हम स्याद्वादियों के मत्तनें तो द्रव्यार्थिक नय से सम्पूर्ण पदार्थ कश्चित् नित्य माने गये हैं । अतः किसीसे भी व्यभिचार नहीं होता है । द्रव्य रूपसे घट, पट आदिकको भी हम नित्य माननेके लिये सन्नद्ध हैं। "
कुम्भादिभिरनेकान्तो न स्यादेव कथञ्चन ।
तेषां मतं गुणत्वेन परैरिष्टः प्रतीतितः ॥ ११२ ॥
इस प्रकार कालांतरस्थायी घट, पट आदि से भी किसी ही तरह व्यभिचार दोष नहीं है क्योंकि उन रूपाद्वादियोंके मंतव्यको प्रतीतिके अनुसार गौणरूपसे दूसरे चावकोंने हुए किया है।