Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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उक्त अनुमानकी व्याख्या करते हैं कि चैतन्य मी पक्ष ) बहिरङ्ग इंद्रियोंसे जन्य ज्ञानके द्वारा प्राह्य हो जाओ ( साध्य, क्योंकि आप चार्वाकोंके मतानुसार वह शरीरका गुण है (देतु) जैसे कि शरीरके गुण स्पर्श, रूप, रस ये बहिरंग इंद्रियोंसे जाने जाते हैं । अन्वमदृष्टांत ) दूसरी यह है कि अथवा विपरीत ( उल्टा ) हो जाये अर्थात देहका गुण चैतन्य जैसे पहिरन इंद्रयोंसे नहीं जाना जाता है। उसी प्रकार देवके गुण माने गये स्पर्श, रूप आदिक भी बहिरङ्ग इंद्रि योंसे नहीं जाने जाने ऐसा नहीं देखा जाता हूँ । अतः चार्वाकके हेतु में अन्यथानुपपत्ति गुण नहीं है जो कि हेतुका प्राण है ।
न च बोधस्य बाह्यकरणज्ञानवेद्यत्वं दृष्टमितीष्टं वा संशयानुत्पचित्र संगामापि स्पर्शादेरामकरणज्ञानवेद्यत्वमित्यतिप्रसङ्गविपर्ययो देहगुणत्वं मुद्देवधिते।
चैतन्यका माझ इंद्रियजन्य ज्ञानसे जाना गयापन आज तक न सो देखा गया है और न अनुमान आदि प्रमाणोंसे इष्ट किया है। यदि ऐसा सिद्ध हो गया होता तो चैतन्यको देहका गुण होनेमें किसीको संशय ही उत्पन्न नहीं हो जानेका प्रसंग आता, अर्थात् सभी बाल गोपाल शट चैतन्यको देहका गुण निर्णय कर लेते। अतः चैतन्यको बहिरंग इंद्रियोंसे जाननेका अतिप्रसंग होना मति मानो, और यह विपर्यय भी नहीं मानो कि स्पर्श आदिक गुण मी चैतन्य के समान बहिरंग इंद्रियजन्य ज्ञानोंसे जानने योग्य नहीं हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त दोनों अतिप्रसंग और विपर्यय दोष होना बुद्धिको देके गुणनेका बाघन कर रहे हैं । अतः " देह बुद्धि है " इस ज्ञानको बाधक प्रमाण उत्पन्न होनेसे सत्यता सिद्धः नहीं होती है तथा च शरीरका गुण चैतन्य नहीं है । यह हमारा प्रतिज्ञावाक्य सिद्ध हुआ ।
सूक्ष्मत्वान्न कचिद्वाह्यकरणज्ञानगोचरः ।
परमाणुवदेवायं बोध इत्यप्यसंगतम् ॥ १३९ ॥ जीवत्कायेऽपि तत्सिद्धेरव्यवस्थानुषङ्गतः । स्वसंवेद्नतस्तावद्बोधसिद्धो न तद्गुणः ॥ १४० ॥
जैनोंने कहा था कि यदि चैतन्य शरीरका गुण है तो स्पर्श, रूप आदिके समान बहिर्भूत इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य होना चाहिये । इस पर हम चाकोंका कहना है कि अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे परमाणु और उसके रूप, रस आदि गुणोंके समान यह चैतन्य कहीं भी बहिरंग इन्द्रियों से जन्य हुये ज्ञानद्वारा गृहीत नहीं होता है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार चार्वाकों का कहना भी स्वकीयमतके निर्वाह करनेकी संगतिसे रहित हैं क्योंकि यदि चैतन्यको परमाणु के समान अत्यंत छोटा मानोगे तो जीवित हो रहे शरीर में भी चैतन्यको सिद्ध करनेकी व्यवस्था नहीं बन सकने का