Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वाचिन्तामणिः
शरीरका गुण चैतन्य नहीं है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उन शरीरमें जैसे बिना किसी स्वटकाके हमको अपने आप सर्श, रूप, गंध आदिका निर्णय होरहा है ( दृष्टांत ) वैसा शरीरमें चैतन्यके रहनेका निर्णय नहीं है ( हेतु ) यदि किसीके गुणको दूसरेका मान लेंगे तो उसी तरह अन्य घट, पर आदिकका गुण भी चैतन्य उस प्रकार सिद्ध हो जावेगा । तथा गंधगुण जसका और वायुका रूपगुण भी बोला जायेगा जो कि आप चाकको या नैयायिकको अभीष्ट नहीं है ।
न हि यथेह देहे स्पीदय इति स्वस्य परस्य वाध्यवसायोऽस्ति तथैव देहे बुद्धिरिति येनासौ देहगुणः स्थाय।
जैसे कि इस देहम स्पर्श, रूप, रस और गंध गुण विद्यमान हैं इस प्रकार हमको और दूसरोंको निश्चय हो रहा है। उसी तरह " देइमें चतन्य है " ऐसा निर्णय हमको और दूसरोंको नहीं होता है जिससे कि यह चैतन्य देहका गुण माना जावे । प्रतीतियोंसे बाधित होरहे पदार्थको कोई नहीं मानता है।
प्राणादिमति काये चेतनेत्यस्त्येवाव्यवसायः कायादन्यत्र सदभावादिति चेत् न तस्य नराधकसद्भावात्सत्यवानुपपत्तेः । कथम् -
यदि चार्वाक यों कहें कि " प्राणस्वरूप श्वास उच्छास लेना, बोलना, चेष्टा करना, पहना, पढाना आदिसे सहित होरहे शरीरमै चेतना विद्यमान है इस प्रकारका निर्णय सबको हो रहा है।
और प्राण आदिसे युक्त देखे गये शरीरसे अतिरिक्त घट, पट आदिकमें उस चेतनाका अमाव प्रतीत हो रहा है। इस कारण शरीरमै ही पेतना मानना चाहिये। अंथकार कहते हैं कि यह चावाकोंका मैतव्य ठीक नहीं है क्योंकि शरीरमें चेतना है ऐसे भ्रांत ज्ञानका पाधक प्रमाण विद्यमान है अतः उस ज्ञानको प्रामाणिकपना सिद्ध नहीं हैं। वह कैसे ! सो सुनिये ।
तद्गुणत्वे हि बोधस्य मृतदेहेऽपि वेदनम् । भवेत्त्वगादिवबाह्यकरणज्ञानतो न किम् ॥ १३८ ।
यदि चैतन्यको उस भौतिकवेइका- ही गुण मानोगे तो मृतशरीरमें भी चैतन्यका ज्ञान होना चाहिये । जैसे मुर्दा शरीरमै स्पर्शन आदिक इंद्रियोंसे स्पर्श, रूप आदिकका ज्ञान हो रहा है उसी प्रकार यदिरंग इंद्रियोंसे अन्य हुये ज्ञानके द्वारा हम तुमको मृतशरीरमें चैतन्यका ज्ञान मी क्यों नहीं होता है ! बताओ, क्योंकि आपके मतमे चैतन्य भी रूपरसके समान शरीरका गुण है और वे पहिरंग इंद्रियोंसे ग्राह्य हैं।
नाणेन्द्रियज्ञानप्राशो पोधोऽस्तु देहगुणत्वात् स्पर्शादिवद्विपर्ययो वा।