Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तयापिन्समानः
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प्रसंग होगा और, जब कि स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे तो चैतन्यकी सिद्धि हो रही है, ऐसी दशाम वह चैतन्य शरीरका गुण सिद्ध नहीं हो पाता है कारण कि भौतिकशरीरके एक भी गुणका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं होता है।
न कचिरोधो बाधकरणज्ञानविषयः प्रसन्यता देहगुणत्वात् तस्य देहारम्भकपरमागुरूपादिभियभिचारातेषां पहिाकरपात्वाविषयत्वेऽपि देहगुणात्वस्य भावात् । न च देहावयवगुणा न भवन्ति सर्वथावयवावयविनोमैदाभावादित्यसङ्गगतम् ।
उक्त वार्तिकोंका भाष्य करते हैं कि देहका गुण होनेसे कहीं भी चैतम्यको पहिरन इन्द्रियजन्य ज्ञानों के द्वारा ग्राह्यपनेका प्रसङ्ग नहीं होगा क्योंकि जो जो देह के गुण है, वे थे। बहिरङ्ग इन्द्रियों से ग्राह्य हैं। इस व्याधिसे युक्त होरहे उस हेतुका शरीरको बनानेवाले परमाणुओंके रूप, रस आदि गुणोंसे व्यभिचार हो जाता है । देखिये, उन परमाणुओंके रूप आदि गुणों में पहिरन इंद्रियोंसे ग्राह्यपना में होते हुए मी का भुगतान हिपमान है। देहके अवयव माने गये परमाणुगोंके जो गुण हैं वे शरीरके गुण नहीं होते हैं यह नहीं कहना चाहिये क्योंकि अवयव और अवयवी सर्व प्रकारोंसे भेद नहीं स्वीकार किया गया है इस प्रकार चावाफका कहना पूर्वापरसङ्गतिसे रहित है।
जीबदेहेऽपि तत्सिद्धयवस्थाभावानुषंगात् । तत्र तव्यवस्था हि इंद्रियजहानात्वसंवेदनाद्वा ? न वावदाधः पक्षो, पोधस्यायामकरणज्ञानगोचरत्ववचनात् द्वितीयपक्षे तु न बोधो देहगुणः स्वसंवेदनवेद्यवादन्यथा स्पोदीनामपि स्वसंविदितत्वप्रसङ्गात् ।।
परमाणुसम्बन्धी रूपके समान यदि चैतन्यको सूक्ष्म अवयवोंका गुण मानोगे हो जीवित शरीरमें भी ज्ञान सिद्ध करनेकी व्यवस्था नहीं हो सकनेका प्रसङ्ग आजावेगा । परमाणु चाहे स्वर्गमें हो या सिद्धलोकमें हो उसके गुण पहिरक इंद्रियोंसे नहीं जाने जाते हैं । उस जीवित शरीरमें उस चैतन्यकी व्यवस्था क्या आप चावाक इंद्रियजन्य ज्ञायसे मानोगे अथवा स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे करोगे ! बताओ । उनमें पहिला पक्षग्रहण करना तो ठीक नहीं है क्योंकि चैतन्यको बाह्य इंद्रियजन्य ज्ञान का विषय आपने भी नहीं कहा है और दूसरे पक्ष में तो देहका गुण चैतन्य सिद्ध नही होता है। कारण कि वह स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे जानने योग्य है। अन्यप्रकारसे यानी यदि देहके गुणोंको स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे वेध मानोगे तो स्पर्श, रूप आदि गुणोंका भी स्वसंवेदनप्रत्यक्ष होजानेका प्रसंग आवेगा । रूप, रस आदिकका स्वसंवेदनप्रत्यक्ष आज तक किसीको हुआ नहीं है।
यत्पुनर्जीवत्कायगुण एव पोधो न मृतकायगुणो येन तत्र बालेन्द्रियाविषयवे जीवस्कायेऽपि बोधस्य तविषयत्वमापयेवेति मतम्, तदप्यसत्, पूर्वोदितदोषानुपशात् ।