Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तस्वाचिन्तामणिः
कर्नामें स्थित होकर सुखसंवित्तिकी सिद्धि नहीं हो सकेगी, अतः मैं सुखी हूं, मैं ज्ञानी हूं, यहां मैंका वाच्य कर्ता घेतन आत्मा ही ज्ञान, सुखोंका आश्रय है । यह मान लेना चाहिये।
स्थान्मतं पूर्वोचरमुखादिरूपचैतन्यविवर्तव्यापी महाचिद्विवर्ती कार्यस्येव सुखादिगुपानामाश्रयः कर्ता, निराश्रयाणां तेषामसम्भवात् । निरंशसुखसंवेदने चाश्रयायिभावस्थ विरोधात्तस्य प्रांतस्वामोगात् पाधकाभावासमा मायमनिष्टेथेति । तर्हि स एवात्मा कर्ता शरीरेन्द्रियविषयविलक्षणत्वात्, तद्विलक्षणोसौ सुखादेरनुभवितृत्वात्, तत्मासौ तदनुसन्धातृत्वात, तदनुसन्धातासौ य एवाहं यत् सुखमनुभूतवान् स एवाह सम्प्रति हर्षमनुमवामीति निश्चयस्यासम्भवद्भाधकस्य सद्भावात् ।
- किसीका यह मंतव्य भी हो कि " पूर्व और उत्तर कालों में होनेवाके सुख, दुःख, इच्छा, ज्ञानस्वरूप चेतनके परिणामों में व्याप्त रहनेवाला सबसे बड़ा चैतन्यका परिणाम ही सुख आदि गुणोंका अधिकरण होकर फर्ता है जैसे कि यह अन्य जन्म मरण करना, अपने योग्य शरीर आदिको बनानारूप कार्योंका कर्ता है । विना आधारके वे सुख आदिक गुण ठहर नहीं सकते हैं । अकर्मक धातुओंकी शयन, लज्जा, वृद्धि, भय, दीप्ति आदि क्रियाएं कम ही रहती हैं। विना कर्ताके वे कहां रहे ! वैसे ही सुख मी कर्ता आत्मामै रहता है"।
" तथा यदि सुलके समीचीन ज्ञानको आधेयफ्न, क्रियापन और पर्यायपन आदि अंशोंसे रहित माना जावेगा तो इसमें आधार आधेयमाव होनेका विरोघ है। इसी कारण सुख आदि गुणोंका आधार यह महाचैतन्य भ्रांतरूप भी नहीं है । क्योंकि उसमें कोई बाधक प्रमाण उत्पन्न नहीं होता है ।
"दूसरी बात यह भी है कि उस महाचैतन्य का भ्रमरूप होना हम या अन्य कोई इष्ट भी नहीं करते हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे, तब तो वह महाचैतन्य ही ( पक्ष ) कर्तास्वरूप आत्मा है ( साध्य ) क्योंकि वह शरीर, इंद्रिय, विषयोंसे सर्वथा भिन्न है ( हेतु ) इस हेतुको सिद्ध करते है कि आत्मा उन शरीर आदिसे विलक्षण है (प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह सुख, दुःख और ज्ञानका अनुमरन करनेवाला है ( हेतु ) इस हेनुको भी फिर साध्य करते हैं कि आत्मा (पक्ष ) सुखादिकका अनुभव करनेवाला है ( साध्य ) क्योंकि पीछे उनका स्मरण करता हुआ देखा जाता है । ( हेतु ) इस हेतुकी पुष्टि सुनिये कि आत्मा ( पक्ष) उन सुखादिकका स्मरण करनेवाला है ( साध्य , क्योंकि पीछे उन सुख आदिकोंका प्रत्यमिज्ञान करता हुआ जाना जाता है।। हेतु ) इस हेतुका भी पोषण इस प्रकार है कि यह आत्मा ( पक्ष ) उन सुख मादिकका प्रत्यभिज्ञान करता है ( साध्य ) क्योंकि जो ही मैं पहिले सुखका अनुभवन कर चुका है, वही मैं इस समय सुखजन्य प्रसन्नताका अनुमान कर रहा हूं (हेत , ऐसा बाधकोंसे रहित निश्चयज्ञान