Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उत्पन्न हो जायेगा। इस प्रकार सदा ही चैतन्यकी अनुमति नहीं हो सकेगी। आपके मतमें सामान्य स्पर्शके समान चैतन्य भी पृथ्वी आदिकोंका साधारणगुण माना गया है । अर्थात् अकेले अकेले, जल, ज्योतिः, नागु, पट, घट, आदिमें चैतन्य सर्वदा उत्पन्न होता रहेगा। सामान्य गुण तो सर्वदा सम्पूर्ण अवस्थाओं में पाये जाते हैं।
प्रदीपप्रभायामुष्पस्पर्शस्यानुभूतस्य दर्शनात् साध्यशून्यं निदर्शनमितिन शनीयम, तस्यासाधारणगुणत्वात्साधारणस्य तु स्पर्शमात्रस्य प्रत्येकं पृथिव्यादि मेदेवशेषेषुद्भवप्रसिद्धः।
___ यदि चार्वाक यों कहें कि जैनोंके कहे गये जो जो पृथिवी आदिकोंका साधारण गुण है वह एक एक भी प्रकट होजाता है जैसे कि स्पर्श। इस अनुमानमें दिया गया स्पर्शदृष्टांत तो साध्यसे रहित है क्योंकि दीपककी फैल रही भी प्रकार नहीं देता उष्णस्पर्श देखा जाता है। अतः प्रगट होकर रहना रूप साध्य दीपकलिकाकी प्रभाके उष्णस्पर्शमैं नहीं रहा। ग्रंथकार कहते हैं कि यह शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि दीपकको प्रमाका वह उष्ण स्पर्श असाधारण गुण है । शीत, उष्ण, रूखा, चिकना, हलका, भारी, नरम, कठोर इन स्पर्शक भेदोंमें साधारणपनेसे न्यापक स्पर्शसामान्य तो सम्पूर्ण पृथिवी आदिकोंके प्रत्येक भेद उपभेदों में प्रगट होकर प्रसिद्ध हो रहा है। वह सामान्य दीपकी प्रभा भी है। यहां दीपकम तो उष्णस्पर्श प्रगट है ही किंतु उसकी तेजस कांतिम स्पर्श प्रकट नहीं अतः प्रभाके स्पर्शसे दोष दिया है। उसका समाधान होचुका है।
परिणामविशेषाभावात् न तत्र चैतन्यस्योद्भतिरिति चेत्, तर्हि परिणामविशिष्टभूतगुणो बोध इत्यसाधारण एवाभिमतः, तत्र चोक्तो दोषः, तत्सरिजिहीर्षणावश्यमदेहगुणो बोधोऽभ्युपगन्तव्यः ।
यदि चार्वाक यहां यों कहे कि अकेले पृथ्वी आविक चैतन्यकी उत्पत्तिका कारण माना गया विशेषपरिणाम नहीं है। अतः वहां चैतन्यकी उत्पत्ति या मकटता नहीं होती है । तब ऐसा कहनेपर तो चा कोंने विलक्षण परिणामों को धारण करनेवाले मूतोंका गुण चतन्य माना । इस तरह चैतन्य असाधारण गुण ही. इष्ट किया गया और उसमें हम दोष पहिले ही कह चुके हैं अर्थात् प्राण आदिके संबंध समान चैतन्य मी बहिरङ्ग इंद्रियोंका विषय होजाना चाहिये । उस दोषको दूर करनेकी यदि इच्छा रखते हो तो चैतन्यको देहका गुण नहीं किंतु आत्माका गुण आपको अवश्म स्वीकार करना चाहिये।
इति न देहचैतन्ययोर्गुणगुणिमावेन भेदः साध्यते येन सिद्धसाध्यता स्यात्, सवोऽनवयं तयोर्भेदसाधनम् ।
इस प्रकार हम जैनोंने गुण और गुणी स्वरूपसे देह और सन्यका भेद नहीं सिद्ध किया है। जिससे कि तुम चार्वाक इमारे ऊपर सिद्धसाधन दोष उठा सको। उस कारण असक निर्दोष