Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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बत्त्या चिन्तामणिः
यदि आप चार्वाकके मतमें अन्वितरूप चैतन्यशक्तिवालेसे विभिन्न जातिवान सूक्ष्ममूत जास्वरूप स्वीकृत किया है तो वह भला चैतन्यका उपादान कारण कैसे हो सकता है ! असत्य मात है। जैसे कि तेजका उपादान जल नहीं होता है । उसी प्रकार विजातीय अहसे चैतन्यकी उत्पत्ति माननमे आपकी मनमानी गयी पुक्ति५ अपदाथको कल्पना है। जो कि आजतक किसी परीक्षकने नहीं की है।
सत्वादिना समानत्वाच्चिदुपादानकल्पने । क्ष्मादीनामपि तत्केन निवार्वेत परस्परम् ॥ ११८॥ येन नैकं भवेत्तत्त्वं क्रियाकारकघाति ते । पृथिव्यादेरशेषस्य तत्रैवानुप्रवेशतः ॥ ११९ ॥.
जड और चेतनका सत्पने, द्रव्यपने, और वस्तुपने प्रमेयत्व आदिसे सजातीयपना मानकर भूतोंको चैतन्यका उपादानकारण होजानेकी कल्पना स्वीकार करोगे, यों तो सत्त्व, द्रव्यत्वसे पृथ्वी, जल आदिमे भी सजातीयता है। तब पृथिवी, जल आदिके भी परस्परमें उपादान उपादेयपनेको कौन रोक सकता है ! कोई भी नहीं, जिससे कि तुम्हारे मतमें एक ही तत्त्व सिद्ध न हो जावे । जो कि क्रिया, कारक को नष्ट करनेवाला है । पृथ्वी, जल आदिक सम्पूर्ण पदापोंका उस ही एक तत्त्वमें पूर्णरीत्या प्रवेश हो जावेगा । भावार्थ---उत्कृष्ट सामान्यरूपसे व्यापक होरहे सस्त, द्रव्यत्व और वस्तुस्वघोंसे यदि सजातीयपना व्यवस्थित किया जावेगा तो कार्यकारणभाव, कर्मक्रियाभाव नहीं बन सकेंगे। क्योंकि जैसे कार्य सत् है वैसे ही कारण मी सत् है तथा कार्य ही कारणका कारण क्यों न पन जावे । अतः इतने बड़े पेटवाले धर्मसे उपादान उपादेय व्यवस्था नहीं होसकती है किंतु एक द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप स्वभावसे ही उपादान उपादेय व्यवस्था है पैतन्य और भूत जमे अन्धितरूपसे एक द्रव्यपत्यासत्ति नहीं होनेसे उपादान उपादेय भाव नहीं है । हां जैन सिद्धांतमें क्रियाकारक भाव सब बन जाते हैं। एकही तत्त्व मानने पर ये सब नहीं बन पाते हैं।
सूक्ष्मभूतविशेषश्चैतन्येन सजातीयो विजातीयो वा तदुपादाने मवेत् १ सजातीयथेदात्मनो नामान्तरेणामिधानात् परमवसिद्धिः। विजातीयश्चेत् कथमुपादानमग्नेर्जलवत् । सर्वथा विजातीयस्याप्युपादानवे सैवाष्टकल्पना ।
उक्त वार्तिकोंकी टीका करते हैं कि परमाणुस्वरूप विशेष रीतिसे माना गया सूक्ष्मभूत आप चार्वाकके मतमें चैतन्यकी जातिवाला होकर ज्ञानीका उपादान कारण है अथवा विजातीय होकर चैतन्य उपादान कारण है । बताओ। यदि पहिला पक्ष सजातीयका लोगे तो दूसरे सूक्ष्मभूत शब्दोंसे आफ्ने आत्माको ही कह दिया है। अतः दूसरे वादिओके मतकी जैनमतकी सिद्धि हो जावेगी।