Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तवाचिन्तामणिः
नन्त आत्माको स्वीकार न करते हुए स्वर्ग, नरक, त्रेत्यभाव, परलोककी व्यवस्था नहीं मानी है किंतु जब स्वसंवेदन के योग्य सूक्ष्मभूतको मानलिया है तो परलोकके निषेधका सम्भव न होने की व्यवस्था करने चार्वाक स्वयं तत्पर होरहा है । इस कारण उक्त निर्णय प्रमाणोंसे सिद्ध होजाता ही है। इसी बातको आचार्य महाराज वार्तिकों द्वारा पुनः स्पष्ट कर कहते हैं-
सूक्ष्मो भूतविशेषश्च वर्णादिपरिवर्जितः । स्वसंवेदनवेयोऽयमनुमेयोऽथवा यदि ॥ १२१ ॥ सर्वथा पंचमं भूतमनात्मज्ञस्य सिद्धयति । स एव परलोकीति परलोकक्षतिः कथम् ॥ १२२ ॥
चैतन्यशक्तिको वारण करनेवाला विलक्षण प्रकारका सूक्ष्मभूत है जो कि रूप, रस, गंध, स्पोंसे रहित है । यह स्वयं अपनेने स्वसंवेदन - प्रत्यक्षसे जाना जाता है अथवा दूसरे में अपने द्वारा और अपने में दूसरोंके द्वारा उसका अनुमान भी किया जाता है। यदि चार्वाक यों मानेंगे तो आत्मतत्वको नहीं माननेवाले चार्वाकको सभी प्रकारसे चार भूतोंके अतिरिक्त पांचवा भूतस्वरूप आत्मा तत्त्व सिद्ध होजाता है । वह आत्मा ही परलोकको धारण करनेवाला है। ऐसी दशामें एक एक आत्मा के पूर्व पीछे हुये अनादि, अनंत, परलोकोंकी क्षति कहां हुई ? अर्थात् चार्वाकजन परखोका निषेध कैसे कर सकते हैं : बतलाइये अर्थात् नहीं ।
नेशो भूतविशेषचैतन्यस्योपादानं किन्तु शरीरादय एव तेषां सहकारित्वेन कारकत्व पक्षानाश्रयादिति चेत् ।
चाक कहते हैं कि पूर्वोक्त रीतिसे स्वसंवेद्य और वर्णादिकोंसे रहित ऐसे सूक्ष्मभूत विशेष को हम चैतन्यका उपादान कारण नहीं मानते हैं किन्तु शरीर, इन्द्रिय और विषयों को ही चैतन्य का उपादानं कारण इष्ट करते हैं। हमने जो यह पक्ष लिया था कि चैतन्यके सूक्ष्मभूत उपादान कारण हैं वे शरीर, इन्द्रिय तथा विषय तो सहकारी कारण होकर कारक हैं सो अब इस पक्षका हम आश्रय नहीं लेते हैं । भावार्थ - शरीर आविकको निमित्त कारण न मानकर हम उनको ही चैतन्यका उपादान कारण मानते हैं । यदि चार्वाक ऐसा कहेंगे तब तो आचार्य कहते हैं कि
शरीरादय एवास्य यद्यपादानहेतवः ।
तदा तद्भावभावित्वं विज्ञानस्य प्रसज्यते ॥ १२३ ॥ व्यतीतेऽपीन्द्रियेऽर्थे च विकल्पज्ञानसम्भवात् । न तद्धेतुत्वमेतस्य तस्मिन्सत्यप्यसम्भवात् ॥ १२४ ॥
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