Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्याचिन्ताममिः
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इस पंचमकालमै चावीक मतके सबसे आदिमें पचपदर्शक बृहस्पति नामके ऋषि हुए हैं। उनका यह मत है कि पट, पट, रूप, रस, आदिक पदार्थों का बहिरंग इन्द्रियोंसे जानलेना प्रत्यक्ष है, प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है । बहिरंग इन्द्रियोंसे अमाहा आस्मा, इच्छा, आदि तत्वोंको चार्वाक स्वीकार नहीं करते हैं । अतः इनका ज्ञान होना भी वे नहीं मानते हैं। इस अपने मतको छोड़कर चार्वाक यदि ज्ञानकी भी दूसरे ज्ञानसे ज्ञप्ति मानेगे तो नैयायिककर मत अंगीकृत करना पडेगा, नयायिक ही क्ट को जाननेवाले ज्ञानका उसी एक भामा पदार्थमें समवायसंबन्धसे उत्पन्न हुए अव्यवहित उत्तरवर्ती दूसरे ज्ञानके द्वारा वेदन होना मानते हैं। ज्ञानका प्रत्यक्ष होना बृहस्पति मतानुयायी मानते नहीं हैं, तभी तो अर्थरूप विषयोंके दर्शनको प्रत्यक्ष कहा है।
जानकी उसी आत्मामें पैदा हुए दूसरे ज्ञानसे जति मानेंगे तो चार्वाकको अपसिद्धान्त दोष लगेगा । बहिरंग अधोंका ही प्रत्यक्ष करना रूप चार्वाकपन भला कैसे सिर रहेगा: फिर सो वह नैयायिक बन जायेगा। उक्त रीतिसे नैयायिकके प्रतको कहनेवालेको किस प्रकार चार्वाक कहा जाय !
परोपगमाचथावचनमिति चेन । स्वसंविदिवज्ञानवादिनः परस्वाद । ततो मतान्तरसमाश्रयस्य दुर्निवारत्वात् । न च तदुपपममननस्थानात् ।
दूसरे, नैयायिक, जैन, बौद्ध, लोग ज्ञानको ज्ञप्ति होना स्वीकार करते हैं, इससे हम चार्वाक भी इसी प्रकार कह देते हैं, यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि आपके विचारोंसे शानका अपने आप ही वेवन हुआ माननेवाला जैनवादी ही यहां दूसरा है। फिर मी आपको नैयायिक नहीं सही दूसरे जैन मतका ही पदिया आश्रम लेना अनिवार्य हुआ। किन्तु वह दूसरेका तीसरेसे और तीसरे ज्ञानका चौथे ज्ञानसे ज्ञापन मानते हुये पूर्वमें नैयाबिकका सहारा ना सो आपका युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि एक शानका दूसरेसे और दूसरेका तीसरेसे तथा तीसरेका चौयेसे कान होते होते मनवस्सा हो जावेगी।
___ इति सिदं स्वसंवेदनं बाधवर्जितं सुख्यहमित्यादिकायातवान्तरणयात्मनो मेर्द साधयतीति किं नचिन्तया ।
इस प्रकार अबतक सिद्ध हुमा कि " में सुखी हूं, में ज्ञानी ई. में इस प्रकारके उल्लेखको धारण करनेवाले बाघारहित स्वसंवेदन मत्यक्ष ही शरीरसे भिन्न तत्त्वरूप करके आत्माका यों भेद सिद्ध कर रहे हैं। फिर हम अधिक चिन्ता क्यों करें : जिसका पत्यक्ष सहायक है, उसमें मी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है तो फिर दूसरे प्रमाणके ढूंढनेकी क्या आवश्यकता है । इस प्रकार यहां तक एक सौ दोमी वार्तिकका उपसंहार किया है।
विभिन्नलक्षणत्वाञ्च भेदश्चैतन्यदेहयोः । तत्त्वान्तरतया तोयतेजोवदिति मीयते ॥ १९८ ॥ ..