Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
..
२२५
•-••••••••
••••
प्रस्पक्षोंके मिनरूपसे प्रसिद्ध होनेपर, यह हेतु भी यो सिम हुआ कहना चाहिम, जय शिवह
और चैतन्य भिन्न है। क्योंकि वे दोनों भिन्न प्रमाणोंसे जाननेयोग्य हैं। स्पर्शन इंद्रियसे जन्य सार्शनप्रत्यक्ष और चक्षुरिन्द्रयसे जन्य चाक्षुष प्रत्यक्षसे शरीर माना जाता है, या जानने योग्य है तथा स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे चैतन्यकी प्रतीति सभी बाल गोपालोंको हो रही है । इस प्रकार भिन्न प्रमाणों से जाना गयापन हेतु सिद्ध हो गया। ___ स्वयं स्वसंवेदनवेद्येन पौग्नुमेयेनामिन्नेन चैतन्येन व्यभिचारीति न युक्तम्, खसंवेधानुमेयखमानाभ्यां तस्य भेदात् ।
यहां कोई हेतुमे व्यभिचार दोष देवे कि देवदत्तके चैतन्यको देवदत्तने अपने स्वसंवेदनपत्यक्षसे जाना और जिनदत्त इंद्रदत्त आदिने उसी देववत्तके चैतन्यको अनुमानप्रमाणसे जाना । अतः भिन्न प्रमाणोंसे जाना गया होकर भी वह चैतन्य अभिन्न है। इस कारण छैनोंके हेतुमें न्यमिघार घोष हुआ, अंधकार कहते है कि यह कहना तो युक्त नहीं है क्योंकि उस देवदत्तके चतन्यौ न्यारे न्यारे अनेक स्वभाव माने गये हैं। जैसे कि एक ही अभिम दाह करना, पाक करना, सोलना, फफोला उठा देना, उबालना, चावलों में क्रिया करना आदि अनेक स्वभाव हैं। वैसे ही भषेक शेयमें नाना ज्ञानोंसे जानने योग्य भी भिन्न भिन्न अनेक स्वभाव है । परमाणु बहिरंग इंद्रियोंसे जन्य ज्ञानके द्वारा जाननेका स्वभाव नहीं है। तभी तो अवधि ज्ञानी और केवलज्ञानी मी परमाणुभोको इंद्रियोंसे नहीं जान पाते है । प्रकृत चैतन्यमें स्वसंधेधपना और अनुमेयपना ये दोनों मिन मित्र स्वभाव विद्यमान हैं। तिन स्वमात्रोंसे देवदत्तके तन्यका भेद भी है अतः हेतुके रहते हुए साध्यके रह जाने पर हमारा हेतु व्यभिचारी नहीं है।
सस एवैकस्य प्रत्यक्षानुमानपरिच्छेयेनाग्निना न तदनकान्तिकम्, नापि मारणशस्पारमाविषद्रव्येण सकृत्ताहशा पाक्तिशक्तिमतोः कथचिनेदप्रसिद्ध
इस ही कारणसे एक एक देवदत्त, जिनदत्तके द्वारा प्रत्यक्ष और अनुमानसे योग्यतानुसार जानी गयी अभिन्न उसी अभिके द्वारा भी हमारा वह हेतु व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि अनिमें प्रमेयस्य नामक गुण है। उसके उन उन व्यक्तियों के द्वारा भनेक प्रमाणोंसे जानने योग्य अनेक स्वमावोंको लिये हुए परिणमन होते रहते हैं। इस कारण अमिमें भी अनेक स्वभावोंकी अपेक्षा मिसपना रूप साध्य रह गया। तथा विषद्रवसे भी व्यभिचार नहीं है, क्योंकि विषद्रव्यमै मी एक साथ वैसी मारनेकी और जीवित करनेकी शक्तियां विद्यमान है । किसी कार्यकी मपेक्षा अशक्तियां भी हैं।
एक लौकिक दृष्टान्त है कि एक मनुष्य गलितकुष्ट रोगसे अत्यंत पीडित था। उसने अनेक धुरम्बर पैचोंसे चिकित्सा करायी, किंत कमात्र मी लाभ नहीं हुआ। ज्यों ज्यों दा की गयी उस