Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तवाचिन्तामणिः
सुश्वादिसामान्यलक्षणमेदे हेतुरसिद्ध इति चेन्न कथमन्यथा क्षिस्यादिभेदसाधनेऽपि सोऽसिद्धो न भवेत् ? असाधारणलक्षणमेदस्य हेतुत्वाचैवमिति चेत्, समानमन्यत्र, सर्वथा विशेषाभावात् ।
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चाक हमारे हेतुमें असिद्ध नामका दोष उठाते हैं कि सत्पना या प्रमेयपना आदि यह देह और चैतन्यका साधारण रूपसे रहनेवाला सामान्य लक्षण है । देह, या चैतन्यरूप पक्ष सत्त्व आदि रूप सामान्य लक्षणोंका भेदरूप हेतु नहीं विद्यमान है ! इस कारण जैनोंका हेतु पक्षमें न रहनेसे असिद्ध है। मंथकार कहते हैं कि यह स्वरूपासिद्ध हेत्वामास उठाना तो ठीक नहीं है। अन्यभा सत्त्व, शेयत्व आदि सामान्य लक्षण तो पृथ्वी जल आदिकमें भी पाये जाते हैं। उनको तत्वान्सर सिद्ध करते समय आपका वह सामान्यसे लक्षणभेद हेतु भी असिद्ध हेत्वाभास क्यों नहीं होगा! | पताओ ।
यदि आप असिद्ध दोष न होवे इस कारण पृथ्वी आदिकमे भेद सिद्ध करनेके लिये विशेष लक्षणोंका भेद इस प्रकार हेतु दवेंगे तो दूसरी जगह भी यही बात समान रूपसे छागू होगी । अर्थात् हम भी वेद और चैतन्यके निराले तत्त्वरूप से भेदको सिद्ध करनेके लिये विशेष विशेष कक्षणोंके मेदको हेतु मनायेंगे। सभी प्रकारसे हमारे और आपके तत्त्वमेद सिद्ध करने में कोई अन्तर नहीं है। न्याय समान होता है। पक्षपात करना ठीक नहीं है। स्वाद्वावसिद्धान्त सामान्य लक्षण और विशेष लक्षण इन दोनोंसे देह और चैतन्यकी द्रव्यपस्यासचि नहीं है अर्थात् दोनों मिल द्रव्य हैं। अथवा जीव और पुत्रद्रव्यकी पर्याय हैं 1 भिन्नप्रमाणवेद्यत्वादित्यप्येतेन वर्णितम् । साधितं वहिरन्तश्च प्रत्यक्षस्य विभेदतः ॥
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इस उक्त कमनके द्वारा यह भी वर्णन कर दिया गया है कि देह और चैतन्य भिन्न हैं क्योंकि वे दोनों भिम प्रमाणों से जाने जाते हैं। बहिरंग इन्द्रियोंसे जन्य मरक्षके द्वारा शरीर जाना
उपयोगस्वरूप चैतन्य जाना जाता है । अनुमानद्वारा भेद सिद्ध कर दिया
जाता है और उससे भिनं अन्तरंग स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे इन भिक्ष मिन दोनों प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे देह और चैतन्यमें गया है, यो प्रत्यक्ष विशेष मेदोंसे यह साधा गया है। अतः यह हेतु पुष्ट होगया है ।
बहिरन्तर्मुखाकारयोरिन्द्रियजस्वसंवेदनयोर्भेदेन प्रसिद्ध सिद्धमिदं साधनं वर्णनीयं देहचैतन्ये भने भित्रप्रमाणवेद्यत्वादिति, करणजज्ञानवेद्यो हि देहः स्वसंवेदनवेयं चैतन्यं प्रतीतमिति सिद्धं साधनम् ।
बहिरंग पदार्थों का उल्लेल करके वाहिरकी तरफ झुके हुए इंद्रियजन्य प्रत्यक्ष है और मलरंग पदार्थों का उल्लेख कर भीतरी तत्वोंको लक्ष्य कर जाननेवाला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है । इन दोनों