Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सस्वाचिन्तामणिः
यदि चार्वाक यों कहे कि आत्माको अन्तरंग तत्त्वरूपसे वेवन करनेवाला आपका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भ्रान्त है, सो उसका यह कहना तो ठीक नहीं क्योंकि आत्माको जाननेवाला वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष सर्वकालमें वाषा रहित है । बाधाओंसे रहित ज्ञान कभी भ्रान्त नहीं होता है।
चार्वाक हेतुमे दोष उठाता है कि दौडती हसी रेलगाड़ी में बैठे हुए पुरुषको दूर्वीं कांस या बाल रंसमे जलका ज्ञान हो जाता है और वहां कोई बाधक ज्ञान भी उत्पन्न नहीं होता है। एसावता क्या यह जलज्ञान प्रमाणीक हो जावेगा !
दूसरा व्यभिचार यह है कि किसी संभ्रान्त सीप, चांदीका ज्ञान होगया और मृत्यु पर्यंत प्रयोजन न होने के कारण उस व्यक्तिको जन्मभर कोई पायक ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ, इतनेसे ही क्या वह ज्ञान अभ्रान्त प्रमाण हो जावेगा !
सरा व्यभिचार यह है कि एक आततायी पुरुषको रस्सीम सर्पका ज्ञान होगया, उस समय उसको बाधक प्रमाण भी उत्पन्न नहीं हुआ, इतनेसे ही बह ज्ञान प्रत्यक्ष पमाण नहीं माना जाता है । इस कारण जैनोंके बापवर्जितपने हेगुका कोई एक विशेष देश और विशिष्ट पुरुष तमा नियतकाल सम्बन्धी बाधाओस रहित उक्त तीन भ्रांत ज्ञानोंसे व्यभिचार हुआ। ग्रंथकार कहते हैं कि
यह चार्वाकोंका अभिप्राय समीचीन नहीं है। क्योंकि हमारे मापवर्जित हेतु " सर्वदा । यह विशेषण लगा हुआ है। सम्पूर्ण पुरुषोंको, सम्पूर्ण देशोमै, तथा सम्पूर्ण कालोंमें , बाधाओंसे रहित जो ज्ञान है, वह अभ्रांत प्रमाण है । चावार्कके दिये गये तीन व्यभिचार किसी देशों, किसी पुरुषको, किसी कालमें भले ही बाधा रहित होवें, फितु सर्वकालमें बाधाओंसे शून्य नहीं है। बालू रेसमें जलका झान निकट पहुंचने पर भ्रांत सिद्ध हो जाता है । सीपमें उत्पन्न हुए चांदी के ज्ञानको अन्य परीक्षकजन बाधित कर देते हैं। रस्सी में सर्पका ज्ञान भी कालांतरमै सबाध सिद्ध हो जाता है अर्थात् जो सर्वदा बाधा रहित होगा, वह ज्ञान प्रमाणीक है । सर्वदा कहनेसे सर्वत्र सर्वस्य भी उपलक्षणसे आजाते हैं ।
यदि भूमि भादि पानी पृथ्वी, अप् , तेज, वायुका परिणाम स्वरूप और चैतन्य शक्ति युक्त इस दृश्यमान शरीरको ही आत्मा मानलिया जायेगा तो ऐसे शरीररूपी आत्मामें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना नहीं संभवता है । जिससे कि वह होता हुआ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष उस शरीरसे भिन्न आत्माको सिद्ध न कर सके, मावार्थ- स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा आत्मा शरीरसे भिन्न स्वयं सिद्ध हो जाता है।
स्वसंवेदनमसिद्धमित्यत्रोच्यते ।