Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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वाप-ताश
जानते हुये प्रतीत होरहे हैं। प्रमाणात्मक सन्चा ज्ञान तो अनेक आकारोंका अभिन्न रूपसे ही जानता है। आमा कहते हैं कि यदि आप बौद्ध ऐसा कहोगे तो माणिक, पन्ना, नील, हीरा आदि मणियोंका समुदाय रूपसे प्रतिभास करते समय यह पनराग मणीकी लाल प्रभा भिन्न है, यह नीली कान्ति न्यारी है आदि इस प्रकार भेदज्ञान नहीं प्रतीत होता है किन्तु यहां भी अनेक रूपोंकी संकीर्ण पर्यायों में पीछेसे अविधाके उदय होनेपर उस भेदविज्ञानको प्रतीत कर लिया जाता है। ऐसा हम भी कह सकते हैं। हम जैनोंका आपादन आपके ऊपर ठीक जम गया है।
मणिराशेर्देशभेदेन विभजनं विवेचन मिति चेत् भिन्मज्ञानसन्तानराशेः समम् ।
मणियोंकी राशिका तो भिन्न देशकी अपेक्षासे विभाग करनारूप विवेचन हो सकता है आप बौद्ध पदि ऐसा कहोगे सो भिन्न भिन्न देवदत्त, जिनदत्तके ज्ञानसन्सानसमुदायका मी देशभेदसे विभाग हो सकता है । दोनों समान है फिर आपका चित्राद्वैत कहां रहा ।
एकज्ञानाकारेषु तदभाव इति चेत् एकमण्याकारेष्वपि ।
पुनः भिन्न ज्ञानसंतान में देश. भेद भले ही हो जाय किंतु एक ज्ञानके आकाम तो मेव नहीं हुआ यदि आप यों कहेंगे तो हम भी कहते हैं कि अनेक मणियोंके संसर्ग होनेपर या सूर्य
और दीपकके निकट होनेपर अनेक पैलवाली एक मणिके परिणत हुए नाना आकार में भी पृथक भाव नहीं है । परस्पर सन्निधान होनेपर निमित्त नैमित्तिक भावसे एक मणिकी भी इंद्रधनुष के समान अनेक दीप्तियां हो आती हैं।
मप्पेरेकस्य खण्डने तदाकारेषु तदस्तीति चेत् । ज्ञानस्यैकस्य खण्डने समानम् ।
एक मणिके टुकड़े करनेपर उसके नाना आकार में यह भेदीकरण हो जाता है । यदि ऐसा कहोगे ता तो एक चित्रज्ञानके खण्ड करनेपर " यह नील आकार है" और यह पीत आकार है। यह भी भेद किया जा सकता है। मणिका दृष्टांत समान है ।
पराण्येव ज्ञानानि तत्खण्डने तथेति चेत् । पराग्येव मणिखण्डद्रव्याणि मविखण्डने तानीति समानम् ।
फिर भी यदि आप बौद्ध यों कहेंगे कि उस चित्रज्ञानका खण्ड करनेपर तो दूसरे दूसरे अनेक ज्ञान इस पकार वैसे उत्पन्न होगये हैं तो हम भी कहते हैं कि मणिके खण्ड करनेपर भी ये मिन्न मिन्न मणिद्रव्यके खण्ड दूसरे ही बन गये हैं । यों फिर भी समानता ही रही ।
नन्वे विचित्रज्ञानं विवेचयनर्थे पवतीति तदविवेचनमिति चेत्, सहि एकत्वपरिणतट्रध्याकाराने विवेचयमानाद्रध्याकारेषु पत्तीति तदविवेचनमस्तु, ततो यथैकक्षानाकाराणा