Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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तथाच विद्यारूप श्रुतज्ञान आदि अल्पज्ञानोंको अविद्या नहीं कह सकते हैं तब तो विद्यासे ही पूर्ण ज्ञान हुआ, अविद्यासे नहीं । विशेष बात यह है कि क्षपकश्रेणीमें भले ही किन्ही मुनिमहाराज के सर्वोवधि या मन:पर्ययज्ञान हो चुका हो किंतु उनके उपयोगात्मक श्रुतज्ञान ही है । श्रुतज्ञानोंका | अतः बारहवें गुणपिंड शुक्लध्यान है। इसमें मति, अवधि, मनःपर्ययका रंचमात्र प्रकाश नहीं स्थानम पूर्ण श्रुतज्ञान है, उस परोक्षरूप पूर्णज्ञानसे ही परिपूर्ण केवलज्ञान हुआ है ।
या तु केनचिदर्शन प्रतिबन्धकस्य सद्भावादविद्याऽऽत्मनः, सापि न विद्योदयकारणं, सदभाव एव विद्यापतेरिति न विद्यात्मिका भावना गुरुणोंपदिष्टा साध्यमाना सुगतत्वहेतुर्यतः सुगतो व्यवतिष्ठते ।
कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले श्रुतज्ञान आदिमें देशघातिप्रकृतिका उदय होनेसे आत्मामें कुछ अज्ञानका अंश रहता है। इस कारण उस अंशरूप अविद्यासे विद्याका उदय माना जावा तो बौद्ध सिद्धान्तको सहकारिता प्राप्त हो भी जाती, किन्तु जो भी वह अज्ञानका अंश है
तो का कारण नहीं माना है। प्रत्युत ( बल्कि ) उसके विपरीत जैनसिद्धान्त में उस अविया अंशों का पूर्णरूप से अमार हो जानेपर ही विद्याकी उत्पत्ति मानी गयी है । सम्मम्दर्शन के साथ होनेवाले सम्यग्ज्ञानमें भी हम उसके पूर्व में हुए मिथ्याज्ञानको कारण नहीं मानते हैं। बल्कि ज्ञानका कारण ज्ञान ही है । ज्ञानमै सम्यकूपनेके व्यवहारका कारण दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय, उपशम या क्षयोपशम है तथा ज्ञानमै मिध्यापन के कथन करनेका कारण मिध्यात्वकर्मका उदय है । यद्यपि सम्यग्ज्ञानके पूर्वमें मिथ्याज्ञान था और अज्ञानभाव भी पूर्णज्ञानके प्रथम था । किन्तु अज्ञान या मिथ्याज्ञान ये सम्यग्ज्ञान या पूर्णज्ञानके कारण नहीं हैं। हां उनका अभाव ही विद्याका कारण होता है । इस प्रकार स्वयं अविद्यारूप किन्तु भविष्य में विद्याका कारण ऐसी गुरुओंके द्वारा परार्थानुमानरूप उपदेशी मयी और पूर्णरूप से अन्तपर्यन्त साधी गयी ( अभ्यास की गयी ) आपकी मानी हुई श्रुतमयी और चिन्तामयी भावना तो सुगत के पूर्णज्ञान उत्पन्न करने में कारण नहीं हो सकती है, जिससे कि बुद्धका सर्वज्ञवन सिद्ध होकर कुछ दिन संसार में उपदेश के लिए ठहरना
स्थित बन सके ।
भवतु वा सुगतस्य विद्यावैतृष्ण्यसंप्राप्तिस्तथापि न शास्त्रत्वं व्यवस्थानाभावात्, तथाहि - "सुगतो न मार्गस्य शास्ता व्यवस्थानविकलत्वात् खड्गवत्, व्यवस्थान विकलो 5सावविधातृष्णाविनिर्मुक्तत्वाचद्वत् " ।
अथवा आपके कथनमा बुद्धदेवको सर्वज्ञता और तृष्णारहित वैराग्यकी समीचीन प्राप्ति हो जाना मान भी लिया जाय तो भी बुद्ध सज्जनोंको मोक्षमार्गके उपदेशकी शिक्षा नहीं कर सकते
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