Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
सब लोग मूर्ख अवस्थासे ही पण्डित बनते हैं । अस्पज्ञतासे ही सर्वज्ञता होती है अन्यथा यानी यदि ऐसा मानोगे तो आप जैनोंको सम्यग्ज्ञान अनादिकालीन मानना पड़ेगा । सर्वज्ञपना भी सर्वदासे स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि सम्याज्ञान और सर्वज्ञतासे ही आपके यहां भविष्य, सम्यग्ज्ञान और सर्वज्ञता पैदा होगी । तथाच संसारकी प्रवृत्ति भी न हो सकेगी सर्वजीव अनादिसे सर्वज्ञ हो जावेगे | अतः विद्याके अनुकूल पडनेवाली अविद्यासे विद्याकी उत्पत्ति मानियेगा ।
इति चेन्न । स्यावादिना विद्याप्रतिबन्धकामावाद्विद्योदयस्येष्टेः । विद्यास्वभावो ह्यात्मा तदाबरणोदये स्वादविद्याविवर्तः स्वप्रतिबन्धकामावे तु स्वरूपे व्यवतिष्ठत इति नाविधैवानादिविद्योदयनिमित्ता।
अब राम करते हैं कि पौधोका ६ मा सो या नहीं है । क्यों कि
हम स्यावादियों के यहां अविद्यासे विद्याकी उत्पत्ति नहीं मानी है, किन्तु विद्या अर्थात ज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मों के क्षयोपशम या क्षयरूप अमावसे विद्याकी उत्पत्ति स्वीकार की है । ज्ञान आत्माका स्वभाव है। पूर्व बन्धे हुए ज्ञानावरण कर्मके उदय होनेपर आत्मा मिथ्याज्ञान या अज्ञानरूप पर्यायोंको धारण करता है और जब उस ज्ञानके अपने प्रतिबन्धक कौंका अभाव हो जाता है, तब तो वह आस्मा अपने स्वभावरूप केवलज्ञानमें व्यवस्थित होकर परिणमन करता रहता है। क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थोका जानना उसका स्वायत्त धर्म है। इस प्रकार अनादिकालीन अविद्याही विद्याकी उत्पत्तिका कारण नहीं है । प्रत्युत कर्मोके नाशसे और अविद्या के अमावसे आत्मामें स्वाभाविक विद्या उत्पन्न हो जाती है।
सफलविधामुपेयामपेक्ष्य देशविद्या तदुपायरूपा भवत्यविद्यैवेति चेत् न देशविद्याया देशतः प्रतिबन्धकाभावादविद्यात्वविरोधात् ।
यहां बौद्ध यह कहे कि आपने अन्तिम फलस्वरूप प्राप्त करने योग्य पूर्ण केवलज्ञानकी अपेक्षा करके एकदेश अल्पज्ञानको उसका कारण हो जाना माना ही है । अर्थात् श्रुतज्ञानसे या अवधि, मनःपर्यय झानके पश्चात् केवलज्ञान पैदा होता है । वह श्रुतज्ञान अल्पज्ञान है तथा सम्पूर्ण अर्थपर्यायोंका ज्ञान न करनेवाला होनेसे अज्ञानरूर भी है । बारहवे गुणस्थानमें केवलज्ञानावरणके उदय होनेसे अज्ञानभाव माना है । इस कारण वह अविधा या अज्ञान ही प्राप्तव्य केवलज्ञानका उपाय है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो बौद्धोंका कहना उचित नहीं है क्यों कि श्रुतज्ञान, अवधिधान या मनःपर्ययज्ञान ये अविद्यारूप नहीं है । अपने अपने आवरण काँके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए हैं। अतः उनको अविद्यापनका विरोध है। खोटे ज्ञान या अज्ञान ही अविद्या कहे जा सकते हैं।