Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वावचिन्तामणिः
तथाहिइसी बातको पुनः स्पष्ट कर कहते हैं।
सन्तानस्याप्यवस्तुत्वादन्यथात्मा तथोच्यताम् ।
कथञ्चिद्व्यतादात्म्याद्विनान्यस्याप्यसम्भवात् ॥ ८९ ॥ . जबकि एक क्षणस्थित रहनेवाले ज्ञानोंकी धारारूप सन्तान भी अवस्तु है क्योंकि अनेक क्षणों में रहनेवाले पदार्थोका कालिक प्रत्यासत्तिसे समूह बन सकता है किन्तु बिजली या दीपकलि काके समान क्षणध्वंसी पदार्थके परिणामोंकी घारा कोई वस्तु नहीं है, स्वयं बौद्रोंने सन्तानको वस्तुभूत नहीं माना है।
यदि क्षणध्वंसी न मानकर उस धाराको कालान्तरस्थायी पदार्थ मानोगे तब तो सन्तान शब्दसे उस प्रकार आत्मा द्रव्य ही कहा गया समझो। आत्माका पूर्वापर क्षणोंके साथ द्रव्यरूप करके कथंचित् तादात्य सम्बन्ध है। उस तादात्म्य सम्बन्धके विना वह सन्तान उन ज्ञानोंकी है यह बात नहीं बन सकती है
एक द्रव्यमें अनेक परिणामोंको तादात्म्यसम्बन्ध ही मिला सकता है क्योंकि तादाम्यके विना पूर्वापर परिणामोंके मिलानेमें संयोग, समवाय आदि अन्यसम्बन्धोंका असम्भव है।
स्वयमपरामष्टमेदाः पूर्वोत्तरक्षणाः सन्तान इति चेत् तर्हितस्यावस्तुलादर्यक्रियापतिः सन्तानिभ्यस्तत्वातचाभ्यामवाच्यवस्थावस्तुत्वेन व्यवस्थापनात् ।
बौद्ध कहते हैं कि प्रत्येक क्षणवी परिणामों में परस्पर अस्यंत भेद है किंतु हम लोगोंकी मोटी दृष्टि से उस भेदका विचार नहीं हो पाता हैं इस कारण नहीं विचारा गया है भेद जिनका ऐसे आगे पीछेके क्षणिक परिणामों के समुदायको सन्तान मान लेते हैं । यदि आप बौद्ध ऐसा कहोगे तो हम जैन कहते हैं कि वह सन्तान अवस्तु हुयी, क्योंकि जो पदार्थ सर्वथा विद्यमान ही नहीं है उसकी धारा मी क्या बन सकती है ! हिमालयसे लेकर समुद्रतक गंगाकी धारा बहती है तब तो उस जलकी सन्तान मानी जाती है किंतु बिंदु जलकी नहीं विद्यमान पूर्वोपर पर्यायोंको कस्पित करके धारा नहीं बनती है तथाच आपकी मानी हुयी सन्तान तुच्छ अवस्तु होने से कुछ भी अर्थक्रियाको न कर सकेगी यों अर्थक्रियाकी क्षति हुई। एक एक क्षण रहनेवाले सन्तानियोंसे भिन्न या अभिन्न होकर जो तद् अतद्रूपसे नहीं कहा जाता है वह अवस्तु माना गया है । ऐसी निर्णायक विद्वानों ने व्यवस्था की है ॥ .. ... ... .. . . .