Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उक्त वार्तिकका व्याख्यान करते हैं कि किसी खड्गी या उपसर्गीमुक्तात्माका हम सर्वथा मटियामेट हो जानारूप शान्त निर्वाण नहीं मानते हैं जिससे कि उस खड्गीके समान बुद्धको मी वैसी ही मोक्ष प्राप्त करनेका आपादन किया जाय, जबकि हमारे यहां सांसरिक वासनाओंके आसबसे रहित होरहे शुद्ध चित्तका अनन्त काल तक उत्पन्न होत रहाऐसा निर्वाण माना गया है । उस कारणसे " सुष्टु गतः " यानी मिरुकुल नाशको प्राप्त हो गया है, यह सुगतका अर्थ हम नहीं मानते हैं, किंतु ज्ञान, वैराग्यसे शोमायुक्तपनको प्राप्त हो गया या पूर्ण ज्ञानीपनको प्राप्त हो गया, ऐसा ज्ञानस्वरूप ही सुगत है और वह मोक्षमार्गका आध प्रकाशक है, शिक्षक है। आचार्य कहते हैं कि यह योगाचारका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उस सुगतका कल्पना करनेका जंजाल सर्वथा नष्ट हो गया है तो बोलनेकी इच्छारूपकल्पना भी उसके उत्पन्न न होगी। इस कारण इच्छाके विना वचनोंका बोलना नहीं बन सकेगा । यचनकी प्रवृत्ति के लिये कारणकूटकी आवश्यकता है । उनमें बोलनेकी इच्छा प्रधान कारण है जो कि सुगतके है नहीं, तब मोक्षमार्गका उपदेश नहीं दे सकता है ।
विशिष्टभावनोद्भुतपुण्यातिशयतो ध्रुवम् ।। विवक्षामन्तरेणापि वाग्वृत्तिः सुगतस्य चेत् ॥ ८७॥
बोलने के लिए इच्छाके विना भी " अगत्का उपकार करूं।" इस बढिया भावनाके पलसे उत्पन्न हुए पुण्यों के चमत्कारसे बुद्धदेवकी भी वचनप्रवृत्ति यथार्थरूपसे हो जावेगी यदि आप बौद्ध ऐसा कहोग--
. बुद्धावनोत्तत्वाबुद्धत्वं, संवर्तकाद्धर्मविशेषाद्विनापि विवक्षाया बुद्धस्य स्फुर्ट वाग्वृत्तिर्यदि तदा स सान्वयो निरन्वयो वा स्यात् ? किचात:
इसकी व्याख्या यह है कि मैं जगत्को मुक्तिमार्ग बतलानेवाला युद्ध हो आऊं इस प्रकार बुद्धपनेको बनानेवाली माकनासे एक विलक्षण पुण्य पैदा होता है । उस विशेष धर्भ माने गये पुण्य करके इच्छाके विना भी बुद्ध भगवान्के स्पष्टरूपसे वचनोकी प्रवृत्ति हो जावेगी। यदि ऐसा कहोगे तो इस पर हम जैनोंका थोड यह पूंछना है कि वह बुद्ध क्या द्रव्यरूपसे अनादि अनन्त काल तक स्थिर रहनेवाला अन्वयी है ! अथवा प्रतिक्षण नष्ट होनेवाला अन्वयरहित होकर केवल उत्पाद, न्यय, स्वभाववान् है । बताओ। सम्भव है कि आप हमारे पूछनेपर यह कहें कि आप जैन लोग इस पूंछनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध करोगे तो हम जैन कहते हैं कि
सिद्धं परमतं तस्य सान्वयत्वे जिनत्वतः मतिक्षणविनाशवे सर्वथार्थक्रियाक्षतिः ॥ ८८ ॥