Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तवाचिन्तामणिः
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आपके पूर्व अनुमान और इस अनुमानमें परस्पराश्रय दोष हुआ, इस प्रकार पूर्व अनुमानमें दिये गये हेतुके हितैषिताका अभाव और अन्तिमपना ये दोनों विशेषण प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं हैं और आपका तु बुद्ध चित्तरूप पक्षों में वर्तमान है अतः व्यभिचारी भी है । इस कारण वह सहकारीरहितत्व हेतु खड्गी के चित्तसन्तानकी अनन्तताका निषेध करने के लिये समर्थ नहीं है, जिससे कि चित्तसन्ततियोंका अन्ययसहित सर्वथा ध्वंस होजानारूप मोक्ष सिद्ध होता, खङ्गिके आगे आगे भविष्य में आने वाले चित्तोंकी अपेक्षासे अपनेको शान्त करूंगा, इस प्रकार मावनाका अभ्यास बना रहता है । उससे वर्तमान में अपने चित्तका शमन होजाने पर भी उस खड्गीकी सन्तानकी पूर्णरूप से समा से होजाय, यह सिद्ध नहीं है । अतः अन्वयरहित तुच्छाभावरूप मुक्ति नहीं बनती है तथा च अनन्त जगत् के उपकार करनेवाले सुगतके समान खड्गीकी भी संसारमे स्थिति न होवे, यह बात नहीं है तथापि यानी इस प्रकार सुगल और खड्गीके पूर्णरूप से समानता होनेपर भी किसी अकेले खड्गीकी ही तुच्छ अभावरूप शान्त मुक्ति मानोगे तो बुद्धकी भी बुझे हुए दीपकके समान चित्तधाराका सर्वथा नाश होजाना रूप वह मोक्ष होजाओ। दोनों में अन्तर कुछ नहीं है ।
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सुक्तः स च कर्ष मार्गस्य प्रणेता नाम ।
वाष्टगत
उस कारण से अब तक यही सिद्ध हुआ कि सुगत शब्दका अच्छी तरह चले जाना अर्थात् अपना सर्वथा खोज खो देना ही अर्थ है। पूर्व में सुगतके तीन अर्थ कड़े थे। उनमें " पुनरनावृत्या गतः " फिर लौट कर न आना रूप ही अर्थ आप बौद्धों के कथन से निकला, अब बतलाइये कि ऐसा अपगत मोक्षमार्गका पथप्रदर्शक मला कैसे हो सकता है ? कथमपि नहीं ।
मा भूत्तच्छान्तनिर्वाणं सुगतोऽस्तु प्रमात्मकः । शास्तेति चेन्न तस्यापि वाक्प्रवृत्तिविरोधतः ॥ ८६ ॥
वैभाषिकका दीपक बुझने के समान वह शान्त निर्वाण न सिद्ध हो यह बात हम योगाचार मानते हैं । हमारे यहां बुद्धदेव प्रमाणज्ञानस्वरूप माना है। वह बुद्ध मोक्षमार्गका शिक्षण करनेवाला सिद्ध है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह भी तो मानना ठीक नहीं है । क्योंकि उस ज्ञानस्वरूप बुद्ध के भी उपदेश देनेके लिये वचनोंकी प्रवृत्ति होनेका विरोध है । क्या शरीर, कण्ठ, तालु, और इच्छाके विना शब्द कहे जा सकते हैं ? अर्थात् नहीं ।
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न कस्यचिच्छन्तनिर्वाणमस्ति येन सुगतस्य तद्वत्तदापाद्यते निरास्रवचिनोत्पादलक्षणस्य निर्वाणस्येष्टत्वात्, ततः शोभनं सम्पूर्ण वा गतः सुगतः, प्रमात्मकः शास्ता मार्गस्पेति चेत्, न तस्यापि विधूतकल्पना जालस्य विवक्षाविरहाद्वाचः प्रवृत्तिविरोधात् ।