Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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कारणों से रहित है | ( हेतु ) जैसे कि बैंड, बती आदि सहकारी कारणोंसे रहित और दूसरोंका हित नचाहनेवाली सबसे पिछली दीपकी शिखा उत्तरवर्ती शिखाओं को पैदा नहीं करती है किन्तु उसी समय शान्त हो जाती है ( अन्वयदृष्टान्त ) इसी तरह खड्गीका चित्त भी मुक्ति अवस्था प्राप्त करनेपर अतिशीघ्र समूल नष्ट हो जाता है " ग्रन्थकार कहते हैं कि यह बौद्धका कहना भी युक्तिशून्य है, क्योंकि उक्त अनुशन में दिये गये सहकारी रहितपने हेतुका बुद्ध के ज्ञानरूप चितसे व्यभिचार है । बुद्धका चित्त सहकारीकारणोंसे रहित है, किंतु भविष्य के अन्यचित्तोंको उत्पन्न करता रहता है । और उस हेतु हितैषी न होना तथा अन्तिमपना ये दो विशेषण भी खङ्गिरूप पक्षमें नहीं घटते हैं । इस कारण तुम्हारा हेतु असिद्ध हेत्वाभास भी है कारण कि आत्माके शमनकी अभिलाषा और जगत् हितकी अभिलाषारूप हितैषिता तो मसे खड़गि और सुगलमें समानरूपसे रहती है । और सन्तानरूपसे सर्वदा रहेगा, अतः अनन्त है ।
सर्वविषयं हितैषित्वं खड्गिनो नास्त्येवेति चेत्, सुगतस्यापि कृतकृत्येषु तदभावात् तत्र तद्भावे वा सुगतस्य यत्किञ्चनकारित्वं प्रवृतिनैष्फल्यात् ।
यदि बौद्ध यों कहें कि " हमारे दिये गये हेतुका जगत्की हितैषिताका अभावरूप विशेषण खड्गमें घट जाता है, अर्थात् स्वगिक सम्पूर्ण जीवों में हितैषिता नहीं ही है, अपनी आत्माकी शान्तिका ही स्वार्थ लगा हुआ है ", इस प्रकार बौद्धोंके कहने पर हम जैन कहेंगे कि जो आत्माएँ कृतकृत्य हो चुकी हैं, उनके प्रति वह सुगतकी भी हितैषिता नहीं है, तो सुगतकी भी सब जीवोमे हितैषिता कहां सिद्ध होती है ? यदि मुक्तिको प्राप्त हो चुके उन कृतकृत्य जीवोंमें भी सुगतकी उस हितैषिताका सद्भाव मानोगे तो सुगतको चाहे जो कुछ भी व्यर्थ कार्य करते रहनेका प्रसंग आवेगा । जैसे कि बनियेने अपने ashat लिखाया था कि " मुख है तो बोल, माहक नहीं हैं तो ठाली बैठा चांटों को तोल " इस लोकोक्ति के अनुसार सुगत भी व्यर्थके कार्य करनेवाला सिद्ध होगा । जिन आत्माओं ने अपना सम्पूर्ण कर्तव्य कर लिया है उनके प्रति किसी भी हितैषीका प्रवृत्ति करना व्यर्थ है, निष्फल है ।
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यत्तु देशतोऽकृतकृत्थेषु तस्य हितैषित्वं तत्खङ्गिनोपि स्वचित्तेषूत्तरेष्वस्तीति न जगद्वितैषित्वाभावः सिद्धः ।
यदि गती हितैषिता। आप जो यह अर्थ करोगे कि जो क्षणिकविज्ञानरूप आत्माएँ कुछ अंशों में अपने कर्तव्यको कर चुके हैं और कुछ अंशोंमें कृतकृत्य नहीं हुए हैं उनमें गुगलकी हित करनकी इच्छा है तब तो इसपर हम जैन कहते हैं कि ऐसी कुछ हि हितैषिता तो खड्गी भी है । खड्गी भी अपने उत्तरकालमें होने वाले विज्ञानरूप चितोंमें प्रशान्त करने की