Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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विकल्पज्ञानोंको हम प्रवर्त्तक नहीं मानते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार पक्षपात के अधीन बोलनेवाला बौद्ध मला परीक्षक कैसे हो सकता है ? नहीं अर्थात् क्या पूर्वमें किये गये चोरी, इंठको छुडानेवाले उपदेश अच्छे हैं और भविष्य में चोरी झूठका त्याग करानेवाले उपदेश प्रमाण नहीं माने जावेंगे ? प्रत्युत उत्पन्न दोषोंके दूर करनेमें कुछ तत्त्व भी नहीं है, सांपके निकल जानेपर लकीर को पीटने के समान व्यर्थ है । भविष्य दोषोंका निवारण ही किया जाता है । इस तरह भूत, भविष्यत् वर्तमान तीनों कालमें संशय आदिकके दूर करनेवाले विकल्पों को भी प्रवर्तक मानना चाहिये | पक्षपातसे बोलनेवाले पुरुष न्यायकर्ता परीक्षक नहीं कहे जाते हैं ।
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araार्थवासनाजनिताध्यवसायस्य वस्तुविषयतायामनुमानाध्यवसायस्यापि सेोते तदात्मिका भावना न तत्त्वविषयातो न विद्याभूतिहेतुरविद्या तो विद्योदयविरोधात् ।
ज्ञानोंके बाद उत्पन्न होने वाली संस्काररूप वासनायें दो प्रकारकी हैं। एक तो शानद्वारा ठीक ठीक वस्तुको पीछेसे भी जताने के लिये कारण हैं वे तत्त्वार्थवासनाएं कही जाती है और जो दृष्ट, अनिष्ट आदि झूठी कल्पनाएं कराने वाली हैं, वे मिथ्या वासनाएं हैं। वस्तुग्राही प्रत्यक्षसे वास्तविक अर्थोको जानकर उनसे पैदा हुयी वासनाएं सच्चे अध्यवसायको पैदा करती हैं। इस कारण वह निश्चय ज्ञान अपने विषय होरहे वस्तुओंकों जानता है। ऐसा बौद्धों द्वारा नियम करनेपर अनुमानरूप निश्वय भी वस्तुभूत क्षणिकत्वको जाननेवाला इष्ट किया है। इस प्रकार वह भावना स्वरूप ज्ञान भी वस्तुस्वरूप को ही विषय करनेवाला मानना चाहिये | अपरमार्थमूत अतत्वोंको जाननेवाला आपका माना गया अध्यवसायात्मक भावनाशान तो ठीक नहीं है । इस कारण यदि भावनाको मिथ्याज्ञानस्वरूप अविद्या माना जावेगा तब तो वह सर्वज्ञतारूप विद्याको उत्पन्न करनेवाली कारण न हो सकेगी क्योंकि अविद्यासे विद्या उदय होनेका विशेष है ।
नन्वविद्यानुकूलाया एवाविद्याया विद्याप्रसवनहेतुत्वं विरुद्धं न पुनर्विद्यानुकूलायाः सर्वस्य तत एव विद्योदयोपगमादन्यथा विद्यानादित्वप्रसक्तेः संसारप्रवृच्ययोगात् ।
शंकाकार पदस्थ प्राप्त होकर बौद्ध अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि भविषा दो तरकी है। प्रथम तो सम्यग्ज्ञानकी सहायकरूप अविद्या है और दूसरी मिथ्याज्ञानके सहकारिणी अविद्या है। मिथ्या ज्ञानके अनुकूलआचरण करनेवाली अविद्यासे ही विद्याकी उत्पत्तिको हेतुताका विरोध है। किंतु फिर विद्याकी सहकारिणी अविद्यासे विद्याकी उत्पत्तिका विशेष नहीं है । सब लोग अविद्या पूर्वक ही विद्याकी उत्पत्ति मानते हैं। आप जैनियों के यहां भी सम्यग्दर्शन के उस पूर्ववर्त्ती मिथ्याज्ञानसे ही सम्यग्ज्ञान होना माना है ।