Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
१८१.
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बौद्ध कहते हैं कि निर्विकल्पक ज्ञान ही परमार्थभूत वस्तुको विषय करता है । सविकल्पक ज्ञान वस्तुको छूता नहीं, केवल मिध्यावासनाओंसे पैदा होकर अपना संवेदन करा लेता है, किन्तु कोई कोई मिथ्याज्ञान भी तत्त्वोंकी प्राप्ति कराने में कारण पडते हैं, अतः परम्परासे वस्तुको विषय करनेवाले कहे जाते हैं । जैसे कि पर्वतमे वह्निका संशय होनेपर अनुमान ज्ञान उत्पन्न होता है, इस कारण वह्निकी प्राप्ति कराने में वह संशयज्ञान भी दूरवर्ती कारण होजाता है । उसी तरह भावनाज्ञान भी तवोंका प्रापक है। पूर्व में शप्ति होती है, पुनः अर्थ में प्रवृत्ति होती है, पश्चात् प्राप्ति होती है, प्रासिकालतक वह क्षणिक निर्विकल्पक ज्ञान तो ठहरता नहीं है । इच्छाओं द्वारा सविकल्पक ज्ञान उपजा लिया जाता है, अतः प्राप्तिकालमें सविकल्पक ज्ञान है । यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो हम जैन पूंछते हैं कि अपरमार्थभूत अवस्तुको जाननेवाली वह मिथ्याज्ञानरूप भावना सच्ची वस्तुको प्राप्त कराने में कैसे कारण हो जावेगी ? क्या सीपमें पैदा हुए चांदी के ज्ञान से यथार्थ. चांदीकी प्राप्ति हो सकती है ? नहीं ।
तदध्यवसायातत्र प्रवर्त्तकत्वादिति चेत् किं पुनरध्यवसायो वस्तु विषयीकुरुते यतोस्य तत्र प्रवर्त्तकत्वम् १
यदि बौद्ध ऐसा कहें कि सीपमें पैदा हुआ चांदीका ज्ञान चांदीका निश्चय न करानेके कारण प्रवर्तक नहीं है, किंतु भावनारूप ज्ञान उन परार्थानुमानरूप शास्त्र के विषयोंका निश्चय करानेवाला है इस कारण उस वस्तु प्रवृत्ति करा देवेगा। बौद्धोंके ऐसा कहनेपर तो हम जैन आपादन करते हैं। कि आपने निश्चयज्ञानको सविकल्पक ज्ञान कहा है और सविकल्पक ज्ञान आपके मतर्फे झूठा ज्ञान है । ऐसी दशामें क्या फिर वह निश्चयरूप मिथ्याज्ञान यथार्थभूत वस्तुको विषय कर लेता है ! बताओ। जिससे कि निश्चयज्ञानसे वस्तुएँ प्रवृत्ति हो जाये । भावार्थ – निश्चयात्मक ज्ञान भी आपके मतसे ठीक वस्तु प्रवृत्ति करानेवाला सिद्ध नहीं होता है ।
स्वलक्षणदर्शन वशप्रभवोऽध्यवसायः प्रवृत्तिविषयोपदर्शकत्वात्प्रवर्तक इति चेत्, प्रत्यक्ष पृष्ठभावी विकल्पस्तथास्तु |
वस्तुत स्वलक्षणसे उत्पन्न हुए निर्विकल्पक प्रत्यक्षके अधीन होकर पैदा हुआ निश्वयज्ञान प्रवृत्तिके विषयको दिखलानेवाला होनेसे प्रवर्तक माना जाता है " यदि आप बौद्ध ऐसा कहोगे तो प्रत्यक्ष ज्ञानके पीछे होनेवाला चाहे कोई विकल्पज्ञान भी प्रवृत्तिके योग्य विषयको प्रदर्शन करने वाला होनेसे प्रवर्तक हो जाओ । जैन सिद्धान्त में प्रमाणज्ञानसे ज्ञप्ति, प्रवृत्ति और प्राप्ति होती हुई मानी गयी है । इसका भाव यही है कि ज्ञान, प्रवृत्ति और प्राप्तिके विषयको जता देता है । प्रवृत्ति, नितिया प्राप्ति करना ज्ञाताको इच्छा और प्रयलसे संबन्ध रखती हैं। क्या सूर्य चन्द्रमाके ज्ञान, सूर्य
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