Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
हैं। क्योंकि पूर्णज्ञान और वैराग्यके होनेपर शीघ्र ही उनकी मोक्ष हो जावेगी। वे संसारमै ठहर न सकेंगे। इसी बातको अनुमान द्वारा स्पष्ट कहते हैं। " सुगत ( पक्ष ) मोक्षमार्गका शिक्षक नहीं है ( साध्य ) क्योंकि वह संसारमें व्यवस्थित रखनेवाले कारणोंसे रहित होगया है ( हेतु ) जैसे कि बौद्धोंका माना गया खड्गी (अन्वयदृष्टान्त) आप बौद्धोंने मुक्तावस्थामें मुक्त खड्गी जीवोंका उपदेश देना कार्य नहीं माना है । वे मुक्तावस्था संसारकी वासनाओंके आस्रवरहित होकर क्षणिक ज्ञानरूप है " । उत्तः अनुसनो दिने गरेको सिद्ध करने " कि आपका माना हुआ वह बुद्ध ( पक्ष ) संसारमें स्थित रहनेवाला नहीं है ( साध्य ) क्योंकि उसी खड्गी मुक्तात्मा (अम्बयदृष्टान्त) के समान संसारस्थितिके कारण अविद्या और रागद्वेषोंसे पूर्णरूपसे सर्वदाके लिये वह मुक्त होगया है " ( हेतु)।
जगद्वितैषितासक्तेर्बुद्धो यद्यवतिष्ठते । तथैवात्महितैषित्वबलात् खड्गीह तिष्ठतु ॥७८ ॥
यदि आप बौद्ध ऐसा कहेंगे कि संसारभरके पाणियोंको हित प्राप्त करानकी तीन अभिलाषामै आसक्त होजानेसे सर्वज्ञ बुद्ध कुछ दिनसक संसारमें ठहर जाते हैं, तब तो आत्माको हिसस्वरूप शान्तियुक्त निर्वाण प्राप्त करानेकी अभिलाषाके यलसे खड्गी मुक्तात्मा मी इस ही प्रकार यहां संसारमें ठहर जाओ। भावार्थ-जैनमतमें जैसे अन्तकृत् केवली होते हैं, उसी प्रकार नौद्धोके यहां तलवार आदिसे घातको माप्त हुए कतिपय मुक्तात्मा माने गये है वे बिना उपदेश दिये ही शान्तिरहित निर्वाणको प्राप्त होजाते हैं। आत्माको शान्त करनेकी उनको अभिलाषा बनी रहती है।
"बुद्धो भवेयं जगते हिताये।, ति भावनासामर्थ्यादविद्यावृष्णाप्रक्षयेऽपि सुगतस्व व्यवस्थाने खड्गिनोप्यास्मान शमयिष्यामीति भावनाबलाचवस्थानमस्तु विशेषाभावात् ।
पूर्व जन्म या इस जन्ममे बुद्धने यह भावना भायी थी कि मैं जगत्का हित करने के लिये सर्वज्ञ बुद्ध हो जाऊं, इस भावनाकी शक्ति से अविद्या और तृष्णाके सर्वथा क्षय होनेपर भी सुगतकी स्थिति संसारमै उपदेश देने के लिये हो जाती है । ऐसा स्वीकार करनेपर इम भी आपादन करते हैं कि आत्माको शान्तिलाम कराऊंगा, ऐसी पूर्वजन्मकी या इस जन्मकी भावनाकी सामध्येसे खङ्गीका भी संसारमै अवस्थान हो जाओ, बुद्ध और खड्गीका संसारमै ठहरने और न ठहरनेमें नियामक कोई विशेष नहीं है ।
तथागतोपकार्यस्य जगतोऽनन्तता यदि । • सर्वदावस्थितौ हेतुर्मतः सुगतसन्ततः ॥ ७९ ॥