Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थे चिन्तामणिः
ऐसी दशा में उस मूर्खको यह इच्छा पैदा करा देनी चाहिये कि यह विषभक्षण आदि तुमको अनुकूल नहीं है किन्तु यह जीवित रहना और पुरुषार्थ करना ही तुन्हारे लिये योग्य है । इस प्रकार इष्टसाधन करनेवाली क्रियाओंको समझा कर जब उसको अपने समीचीन इष्टके जाननेकी अभिलाषाएँ अच्छी पैदा हो जायेंगी । तब वह उपदेशकी योग्यता को भी अपने अधीन कर लेगा । बादमें तत्रज्ञान और मोक्षमार्गके जाननेकी भी तीव्र इच्छाएँ उसके हृदयमें पैदा हो जायेंगी उस कारणसे हमने पहले यह बहुत ठीक कहा था कि मोक्षमार्गके जाननेकी अभिलाषा रखता हुआ विनीत शिष्यही तत्त्वार्थ सूत्र के प्रतिपादन करते समय सुननेका अधिकारी है । दूसरा कोई नहीं प्रधानस्यात्मनो वा चेतनारहितस्य बुभुत्सायां न प्रथमं सूत्रं प्रवृतं तस्याप्युपदेशायोग्यत्वनिश्चयात् खादिवत् ।
६८
****
कारका बोलनेके पूर्व दूसरा, तीसरा आक्षेप यह भी था कि सांख्य आत्माको चेतन मानते हैं और अचेतन प्रकृतिमें इच्छा होना मानते हैं । नैयायिक चेतनाको चौबीस गुणोंमेंसे एक बुद्धिरूप गुण मानते हैं। और गुणगुणीका सर्वथा भेद स्वीकार करते हैं तथा आत्मामें चेतनाका समवाय संबंध मानते हैं। ऐसी दशामें प्रकृतिको इच्छा होनेपर अथवा चेतनारहित आत्माकी जानने की इच्छा होनेपर पहिले सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है । यह उनका कहना ठीक नहीं है क्योंकि आकाश, बट, आदि के समान उस स्वयं जडरूप प्रकृति और नैयायिककी स्वतः अचेतन आत्माको भी उपदेश प्राप्त करनेकी अयोग्यताका निश्चय है ।
चैतन्यसम्बन्धाचस्य चेतनतोपगमादुपदेशयोग्यत्वनिश्चय इति चेन तस्य चेतनासम्बन्धेऽपि परमार्थतश्चेतनतानुपपत्तेः शरीरादिवत् । उपचाराचु चेतनस्योपदेशयोग्यतायामतिप्रसङ्गः शरीरादिषु वनिवारणाघटनात् ।
यदि नैयायिक यों कहेंगे कि चेतना ( बुद्धि ) गुणके सम्बन्धसे आत्मा को भी हम चेतनपना स्वीकार करते हैं और कापिल कहेंगे कि चेतन आत्मा के सम्बन्धविशेषसे जड प्रकृति भी चेतन बन जाती है । अतः दोनोंको उपदेश प्राप्त करनेकी योग्यताका निश्चय है । मन्थाकर कहते हैं कि यह उनका विचार तो ठीक नहीं है कारण कि स्वयं जडस्त्ररूप प्रकृति और आत्माको भिन्न चैतन्यका सम्बन्ध होते हुए भी वास्तव में चेतनापना सिद्ध नहीं हो सकता है। यों तो कापिलोंने चेतन आत्माका संबंध शरीर इंद्रिय आदिमें भी माना है और नैयायिकोंने भी स्वाश्रयसंयोग संबंघसे चेतनाका सम्बन्धीपन शरीर, मन और चक्षु आदि इंद्रियोंमें स्वीकार किया है, क्या एतावता जडशरीर, सुन, पुण्य, पाप, आदि भी उपदेशके योग्य हो जावेगे !