Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
बाले मोक्षमार्गरूप पक्षमै सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र इन तीनोंकी एकता रूप साध्य का निश्चय किया है, इसी बात को स्पष्ट कर समझाते हैं कि मोक्षका मार्ग सम्यदर्शनज्ञानचारित्ररूप है, ( प्रतिज्ञा ) अन्यथा उसको मोक्षमार्गपना नहीं बन सकेगा, ( हेतु ) पहिले तो इस अनुमानमें मोक्षमार्गरूपी पक्ष और हेतु अप्रसिद्ध नहीं है कारण कि संपूर्ण मोक्ष मानने वाले वादियोंने सामान्यरूपसे मोक्षका मार्ग विवादरहित स्वीकार किया है, और जो चार्वाक, शून्यवादी, आदि मोक्षको सर्वेयाही नहीं मानते हैं, उनके प्रति तो मोक्षकी सिद्धि आगे चलकर प्रमाणोंसे कर दी जायेगी, संतोष रखिये, अतः उनको भी वह मोक्षका मार्ग स्वीकार करना अनिवार्य होगा ।
प्रतिज्ञार्थकदेशो हेतुरिति चेत्
साध्य और पक्षके कहनेको प्रतिज्ञा कहते हैं, हेतुका साध्यके साथ समर्थन और पक्षमें रहना सिद्ध करने के पूर्वमें उक्त प्रतिज्ञावाक्य सिद्ध नहीं समझा जाता है, इस अनुमानमें जैनोंने प्रतिज्ञा एक देश होरहे पक्षको ही हेतु बना दिया है, ऐसी दशा जब प्रतिक्षा जसिद्ध है तो उसका एक देश माना गया हेतु भी असिद्ध ही है यदि आप बौद्ध ऐसा कहोगे तब तो ।
कः पुनः प्रतिज्ञार्थस्तदेकदेशो वा १
यहां हम पूछते हैं कि उस प्रतिज्ञा के वचनका वाच्य अर्थ क्या है ? और क्या उस प्रतिज्ञा अर्थ ( विषयका ) एक देश है ? जिसको कि शंकाकार असिद्ध कर रहा है, बताओ ।
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साध्यधर्मधर्मिसमुदायः प्रतिज्ञार्थस्तदेकदेशः साध्यं धर्मो यथाऽनित्यः शब्दोऽनित्यत्वादिति, धर्मी वा तदेकदेशो यथा नश्वरः शब्दः शब्दत्वादिति, सोयं हेतुत्वेनोपा दीयमानो न साध्यसाधनायालं स्वयमसिद्धमिति चेत् ।
I
यहां शंकाकार कहता है कि साध्यरूपी धर्मं और पक्षरूपी धर्मीका समुदाय ही प्रतिज्ञावाक्यका विषय है । उसका एक देश साध्यधर्म है। उस प्रतिज्ञाविषयका एक देश कहे गये साध्यरूपी धर्मको यदि हेतु कर लिया जायेगा तब वह हेतु साध्य सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है । जैसे कि शब्द अनित्य है अनित्य होनेसे यहां साध्यको ही हेतु करलिया गया है । तथा कहीं प्रतिज्ञाके एकदेश माने गये धर्मीको हेतु बतानेपर भी साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है । जैसे कि शब्द नाशस्वभाववाला है शब्द होनेसे । इस अनुमान स्वयं शब्दख ही जब असिद्ध है तो वह हेतुपनेसे अनुमानमे ग्रहण किया गया होकर साध्यके सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है। यदि आप सौगत ऐसा कहोगे ? | तब तो-
कथं धर्मिणोऽसिद्धता 'प्रसिद्धो धर्मीति' वचनव्याघातातू ।