Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तो उसी प्रकार हम भी कहते हैं कि हमारे अनुमानमें भी मोक्षमार्गलरूपी हेतु सामान्यरूपसे में भी पाया जाता है, पक्षके एक देशने भी अन्वयव्याप्तिका बनना इष्ट किया गया है । तथा विशेषरूपको पक्ष बनाकर और सामान्य अंशको हेतु माननेवालोंको कोई दोष नहीं आता है । aft aौद्धका यह आग्रह है कि पक्षसे बहिर्भूत ही अन्ययदृष्टांत होना चाहिये अन्यथा अनन्वय दोष होगा, तब तो ऐसा अनन्य दोष फिर हमारे और आपके दोनों अनुमानोंमें समान है, फिर यह कुछ भी कहनामात्र है, तत्त्व कुछ नहीं निकला । यानी आपके उक्त कथनका कुछ भी फल नहीं निकलता है। पक्ष के अंतरंग में भी व्याप्ति बनायी जाकर सद्धेतुओं की व्यवस्था मानी गयी है, जैसेकि सर्वज्ञकी सिद्धि करने में सम्पूर्ण पदार्थोंको पक्ष कर एकज्ञानसे जाने गयेपनको साध्य किया है और अनेक हेतु दिया है, इस अनुमानमें जो जो अनेक होते हैं वे वे एक ज्ञानके विषय होजाते हैं, जैसेकि पांचों अंगुलियां ऐसी अन्वयव्याप्ति बनाकर पांचों अंगुलियों को अन्त्रयदृष्टांत माना है, जो कि पक्षमें अंतर्भूत हैं । दूसरी बात यह है कि अन्ययदृष्टांतमें रहना हेतुका प्राणस्वरूप लक्षण नही है । विना अन्वय दृष्टांतके भी प्राणादिमत्त्व हेतुसे आत्मासहितपनेको और कृतिकोदयसे मुहूर्तके बाद रोहिणी नक्षत्र के उदयको सिद्ध किया गया है । तीसरी बात यह है कि कविलोगोंने अनन्वयको दोष न मानकर अलंकार ही माना है, जैसे कि जिनेन्द्र देव जिनेन्द्रदेव ही हैं, यहां कोई दूसरा उपमान नहीं मिलता है ।
साध्यधर्मः पुनः प्रतिज्ञार्थकदेशत्वाच हेतुर्धर्मिंगा व्यभिचारात् किं तर्हि स्वरूपासिद्धत्वादेवेति न प्रतिज्ञार्थैकदेशो नाम हेत्वाभासोऽस्ति योऽत्राशक्यते ।
श्रीमाणिक्यनन्दी आचार्यने वह्निवाला पर्वत है, इस अनुमानमें अभिको साध्य माना है और कहीं कहीं अभिसहित पर्वतको भी साध्य माना है । इसी प्रकार प्रकृतमें भी " मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन आदि त्रयात्मक " है, यहां साध्यकी कुक्षिमें पडे हुए दो धर्म हैं, उन दोनोंको प्रतिक्षावाक्य विषयका एकदेशपना है, वहां पक्ष अंश तो प्रसिद्ध ही है । साध्य अंश अप्रसिद्ध माना गया है, अतः प्रतिज्ञाषा एकदेश होनेसे सद्धेतुपने में दोष आवेगा, यदि ऐसा नियम करोगे यह ठीक नहीं, तब तो पक्षसे व्यभिचार हो जायेगा क्योंकि पक्ष भी तो प्रतिज्ञाका एकदेश है, तब तो फिर क्या करें ? इसका उत्तर यह है कि यदि प्रतिज्ञा के विषय असिद्ध है तो वहां स्वरूपासिद्ध नामके हेत्वाभाससे असिद्धता उठानी चाहिये, पक्षमें देतुके न रहनेको स्वरूपासिद्ध कहते हैं । असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर ये चार हेत्वामास हैं, जिसकी आप यहां शंका कर रहे हैं, या जो दोष यहां उठाया जा रहा है, वह प्रतिज्ञार्थैकदेशा सिद्ध नामका तो कोई हेत्वाभास ही नहीं है।