Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ चिन्तामणिः
हिंसाका कारण होकर पापको पैदा करनेवाला नहीं है । अतः जैनोंका दिया गया हिंसाका कारणपनारूपहेतु अभिहोत्र - रूपपक्ष में नहीं रहने से असिद्ध हेत्वाभास है, यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तब तो इम जैन आपादन करते हैं कि खरपटमतके अनुयायिओंने धनवानके विधिपूर्वक मार डालनेको भी शास्त्रों में लिखी हुयी क्रियाकाही अनुष्ठान माना है, अतः धनीका मार डालना भी हिंसाका कारण न होवे | यों धर्मका प्रलोभन देकर की गयी धनिकोंकी हिंसासे स्वर्ग होजाता है इस प्रकारका धवन भी आप मीमांसक लोगोंको प्रामाणिक होजाओ ।
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तस्याप्यैहिकप्रत्यवायपरिहारसमर्थेतिकर्तव्यता लक्षण विधिपूर्वकत्वाविशेषात् । न हि वेदविहितमेव विहितानुष्ठानं, न पुनः खरपटशास्त्रविहितमित्यत्र प्रमाणमस्ति ।
अनेक पुरुषों का ऐसा अनुभव है कि संसारमें प्रायः धनवान पुरुष ही अनर्थ करते हैं । हिंसा करना, द्यूत खेलना, मद्यपान करना, वेश्या परस्त्रीगमन करना, परिग्रह एकत्रित करना, अन्यायों से गरीब, दीन, अनाथ, विधवाओंका घोर परिश्रमसे पैदा हुए पैसको हडप जाना, कुरीतियां चलाना आदि धनवानोंके ही कुकर्म हैं । धनिक पुरुषही अनके मदसे अन्धे होकर दीन, दुःखी, साधारण मनुष्यों को नाना प्रकार क्लेश पहुंचाते रहते हैं। पूंजीपतियों को कोई अधिकार नहीं है कि वे अकेले ही उसका उपयोग करें, धन सर्व पुरुषों को सार्वजनिक सम्पत्ति है। वह सब पुरुष यथायोग्य बांट देना चाहिये । जो घनो पुरुष उक्त क्रियाको न करे, उसका वचतक कर दिया जाय, इस प्रकार करनेसे इस लोक संबंधी अनेक पापाचार भी दूर होजायेंगे तथा अभिमान, दूसरोंपर घृणा करना, लोम आदि कुकर्मों के दुर होजाने से सहानुभूति, वात्सल्य, सबके प्रति सौहार्दभाव, सजातीयता, समानता आदि गुणोंकी वृद्धि होकर संसार-दुनियां में गानन्द अमन चमन रहेगा, इन पूर्वोक युक्तियों से वह धनिकों का वध भी कर्तव्यपनेको प्राप्त होता हुआ अनेक पापोंको हटाने में समर्थ हैं । यह धनिक वध खरपट मतानुयार्थियोंकी विधिके अनुसार ही है । वे यह मानते हैं कि बकरा, घोडा आदिको मारकर होमदेना चाहिये, इन वाक्यों में और " हन्ते को हनिये घनिकको मारिये इत्यादि वाक्यों में कोई अन्तर नहीं है | यदि आप मीमांसक यहां कहें कि वेद लिखी हुई हिंसा के करनेसे, या युद्धमें मरनेसे सर्ग वश्य होता है अतः ये ही कर्म तो शास्त्रोक्त क्रियायें हैं किन्तु फिर स्वरपट मतानुयायिओं के शास्त्री विधिलिड्से लिखी हुयी क्रियाएँ वेदोक्त नहीं हैं, इस आपके हमें कोई प्रमाण नहीं हैं। दोनों ही समानरूपसे हिंसाके कारण हैं । दोनों भी प्रमाण होंगे या एक साथ अपमान हो जायेंगे ।
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यागः श्रेयोऽर्थिनां विहितानुष्ठानं श्रेयस्करत्वान्न सवनबधस्तद्विपरीतत्वादिति चेत् । तो मागस्य श्रेयस्करत्वम् ?