Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वान्तिामणिः
होआनेपर पात्कालमें आपका अनुमान घोला गया है । इस प्रकार सर्वज्ञको जाननेवाले कोई नहीं हैं यह असर्वशवादी मीमांसक नहीं कह सकते हैं अर्थात् सर्वज्ञका या सर्वज्ञको जाननेवालोंका निषेध करना उचित नहीं है।
ज्ञापकानुपलम्भोऽस्ति तन्न तत्प्रतिषेधतः । कारकानुफ्लम्भस्तु प्रतिघातीष्यतेऽग्रतः ॥ ३७ ॥
हेत दो प्रकार के होते हैं । एक ज्ञापक हेतु, दूसरे कारक हेतु, जैसे कि अमिका धूम ज्ञापक हेतु है और धूमका कारक हेतु अमि है। यहां मीमांसकों करके कहा गया सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणोंका अनुपसम्म तो सिद्ध नहीं हुआ है क्योंकि हमने सर्वज्ञके ज्ञापकममाणोंको सिद्ध करके उस अनुपरुम्मका निषेध कर दिया है और सर्वज्ञको बनानेवाले कार कोतुओंके अनुपचम्म होनेका भी आगे विधात करनेवाले हैं। अर्थात् तपस्या, समाधि, पूर्ण श्रुतज्ञान आदिके द्वारा ज्ञानावरण आदि काँके क्षबसे सर्वपन बनना इष्ट है । भावार्थ-कौके क्षयसे विशुद्ध आत्माम स्वाभाविक केवलज्ञान प्रगट होजाता है अतः कारमा अनुपम भी नहीं है।
तदेवं सिद्धो विश्वतत्वाना शावा, तदमावसाधनस्य शापकानुपलम्मस्य कारकानुपलम्भस्य च निराकरणात् ।
इस कारण इस प्रकार अब तक सिद्ध हुआ कि सम्पूर्ण पदार्थों का एक साथ प्रत्यक्ष करनेवाला सर्वज्ञ अवश्य है । क्योंकि उस सर्वज्ञके अमावको सिद्ध करनेके लिये मीमांसकोंकी ओरसे दिये गये ज्ञापकप्रमाणोंके अनुपलम्मका और कारककारणोंके अनुपलम्भका खण्डन कर दिया गया है। दूसरी कारिकामें कहे गये प्रमेयको पुष्ट करने के लिये-सर्वज्ञताको सिद्ध कर नुकनेपर अब पापोंका क्षय करना प्रसिद्ध करते हैं सुनिये।
कल्मषप्रक्षयश्चास्य विश्वज्ञत्वात्प्रतीयते ।
तमन्तरेण तद्भावानुपपत्तिप्रसिद्धितः ॥ ३८॥
इस सर्वज्ञके ज्ञानावरण आदि पापकर्मोका क्षय हो जाना तो सम्पूर्ण पदार्थोके ज्ञातापनसे ही निर्णीत कर लिया जाता है। क्योंकि उसके विना यानी पापोंका क्षय किये विना उप्तके सद्भाव यानी सविताकी सिद्धि नहीं होती हैं । यह प्रमाणसें सिद्ध है ।
सर्वतत्वार्थज्ञानं व कस्यचित्स्यात् कल्मषप्रक्षयश्च न स्यादिति न शंकनीयं तनाव एव तस्य सद्भावोपपचिसिद्धेः ।